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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१६ उ०५ सू०३ गादत्तदेवस्यागमनादिनिरूपणम् १५९ द्रष्टव्यम् 'तए णं से गंगदत्ते देवे' ततः खलु स गङ्गदत्तो देवः 'समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिके 'धम्मं सोचा निसम्म धर्म श्रुतचात्रिलक्षणं श्रुत्वा निशम्य-तदर्थ हृदि अवधार्य 'इतुडे' हृष्टतुष्टः सन् 'उहाए उठेई' उत्थया उत्तिष्ठति 'उठाए उद्देत्ता' उत्थया, उत्थानशक्पा उत्थाय 'समणं भगवं महावीरं वंदा नमंसई श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति वंदिचा नमंसित्ता एवं क्यासी' वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमचादीत 'अहं गं भते ! गंगदत्ते देवे' अहं खलु भदन्त ! गङ्गादत्तो देवः 'किं भवसिद्धिए अभवसिद्धिए' किं भवसिद्धिकोऽभवसिद्धिको वा, भवे-अस्मिन् भवे आगामिनि कस्मिंश्चिदपि भवे वा सिद्धिर्यस्य स तथा, तद् विपरीतो अभवसिद्धिको वा ? भन्योऽ. भव्यो वा इति भावः। भगवानाह-' एवं ' इत्यादि 'एवं जहा सरियामो' से गंगदत्ते देवे' इसके बाद वह गंगदत्त देव 'लमणस्त भगवो महावीरस्स अंतिए' श्रमण भगवान महावीर से 'धम्म सोच्चा निसम्म' 'श्रुतचारित्ररूप धर्मका व्याख्यान सुनकर और उसे हृदय में धारण कर 'हहतुडे' बहुत अधिक हषित हुआ और संतुष्ट हुआ, 'उहाए उद्देई' फिर वह वहां से अपने आप उठा-'उट्ठाए उत्ता' उठकर 'समर्ण भगवं महावीरं वंदह, नमंसह' उसने श्रमण भगवान महावीर को वंदना की, नमस्कार किया 'बंदित्ता नमंसित्ता एवं क्यासी' वन्दना नमस्कार करके फिर उसने प्रभुसे ऐसो पूछा-'अहं णं भंते ! गंगदत्तदेवे किं भवसिद्धिए अभयसिद्धिए' है भदन्त ! मैं गंगदत्त देव क्या भवसिद्धक हूं या अभयसिद्धिक हूँ, जिस को इस भवभवे या भाविभव से सिद्ध पद की प्राप्ति होती है ऐसा मैं हूँ, या सिद्ध पद की प्राप्ति जिसे कभी नहीं होनी है " तए णं से गंगदत्ते देवे" ५७ ते महत्त ५ “समण्णस्स भगवओ महावीरस्य अंतिए" श्रम सगवान महावीरनी पासेथी “धम्म सोचा निमम्म" श्रुत यारित ३५ धमन परेश मलीन अने तर रायमा श हत" ध मधि: प्रसन्न थयो भने सतु०४ (प्रसन्न) वित्त थन "उदाए इ" पछी त हे त्यांची पाते यो “ उढाए उद्वेत्ता"
ही "समणं अगवं महावीरं वंदह नमसह" तेथे श्रम सगवान महावीरने. पन्न४ नमा२ ४यो " वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासि" वनानमार
शन पछी तो प्रभुने मा प्रभारी पूछयु " अहं णं भंते ! गंगदत्ते देवे किं भवसिद्धिए अभवसिद्धिए" सपना महत्त र शु सिद्धि छु કે અભવસિદ્ધિક છું અર્થાત જેને સિદ્ધ પદની પ્રાપ્તિ થાય છે, એ હું છું ? કે સિદ્ધ પદની પ્રાપ્તિ કઈ વખત પણું ન થાય તે હું છું? તેના ઉત્તરમાં