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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १३ उ० २ सू० १ देवविशेषनिरूपणम्
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ज्जवित्थडा, असंखेज्ज वित्थडा ? ' हे भदन्त । ते खलु वानव्यन्तरावासाः किं संख्येयविस्तृताः सन्ति ? किंवा असंख्येयविस्तृताः सन्ति ? भगवानाह - 'गोयमा ! संखेज्जवित्थडा, नो असंखेज्जवित्थडा' हे गौतम! संख्येयविस्तृताः सन्ति, वानव्यन्तरावासाः, नो असंख्येयविस्तृताः सन्ति । तथा चोक्तम्
"जंबुद्दीवसमा खलु उकोसेणं हवंति ते नगरा । खुड्डा खेतमा खलु विदेहसमगाउ मज्झिमगा ॥ १ ॥ छाया - जम्बूद्वीपसमानि खलु उत्कृष्टेन भवन्ति तानि नगराणि । क्षुद्राणि क्षेत्रसमानि (भरतैरावत क्षेत्रसमानि) खलु विदेहसमकानि (महाविदेह क्षेत्रतुल्यान) मध्यमकानि ॥ १ ॥ इति । गौतमः पृच्छति - 'संखेज्जेसुणं भंते! वाणमंतरावास सय सहसेसु एसमएणं अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं - 'तणं भते । किं संखेज्जविडा असंखेज्ज वित्थडा' हे भदन्त ! ये चानन्तरों के असंख्यात लाख भवनावास क्या संख्यातयोजन के विस्तारवाले हैं, या असंख्यात योजन के विस्तारवाले हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - गोधमा ! हे गौतम! 'संखेज्जवित्थड़ा, नो असखेज्ज-. fariडा' ये वानव्यन्तरों के आवास संख्यातविस्तारवाले ही हैं, अमख्यातविस्तारवाले नहीं हैं। तथाचोक्तम् - जंबुद्दीवसमा खलु' इत्यादि । तात्पर्य ऐसा है कि वानव्यन्तरों के जो क्षुद्रावास हैं - वे भरत, ऐरक्तक्षेत्र के समान हैं और जो मध्यम आवास है वे महाविदेह क्षेत्र के समान हैं तथा जो इसके उत्कृष्ट नगर हैं वे जम्बूद्वीप के समान हैं। अव गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं - सखेज्जे णं भंते! वाणमंतरा
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गौतम ं स्वाभीना अश्न-" तेणं भते । किं संखेज्न वित्थडा असंखेज्ज वित्थडा” હે ભગવન્ ! વાનવ્યન્તરાના તે અસખ્યાત લાખ ભવનાવ સે। શુ સખ્યાત ચેાજનના વિસ્તારવાળા છે ?, કે અસખ્યાત યાજનના વિસ્તારવાળા છે ?
भडावीर अलुने। उत्तर—“ गोयमा ! संखेज्जवित्थडा, नो असंखेज्ज वित्थडा" હે ગૌતમ ! વાનન્યન્તરાના તે આવાસા સખ્યાત ચેાજનના વિસ્તારવાળા छे, असंख्यात योन्जना विस्तारवाजा नथी अधु पशु छे - " जंबुद्दीवसमा खलु " त्याहि- तात्पर्य मे छे "वानव्यन्तरोना ने क्षुद्रावसो सौथी - નાના છે, તેભરત અરવત ક્ષેત્રના સમાન છે, મધ્યમ આવાસેા મહાવિદેહ क्षेत्र समान छे, मने तेमन ने नगरो छे, तेथे शूद्रीपना समान है." गौतम स्वामीने! प्रश्न–“ संखेज्जेसु णं भंते ! वाणमंतरावास सय सहस्से एग
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