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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १२ उ० ८ सू० २ तिर्यग्योनिकविशेषनिरूपणम्
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अतस्ते गोलाङ्गूलादयो नैरयिकतया उत्पत्तकामा अपि नैरयिका एव व्यपदिश्यन्ते इति श्रमणो भगवान् महावीरः स्वयं व्याकरोति - व्याख्याति, नतु जमाल्यादिरित्यवसेयम् । गौतमः पृच्छति - ' अह भंते ! सीदे वग्धे जहा उस्सप्पिणी उद्देस जाव परस्सरे, एएणं निस्सीला ?' हे भदन्त ! अथ सिंह, व्याघ्रः, यथा उत्सर्पिण्युदेश के - सप्तमशनकस्य पष्ठोदेशके प्रतिपादितं तथैवात्रापि प्रतिपत्तव्यम्, यावत् - भल्लूकः, तरक्षुः खङ्गी, परासरः शरभः, एते खलु सिंहप्रभृतयः परासरान्ताः पञ्चन्द्रियतिर्यग्योनयः, निःशीलाः- सदाचाररहिताः, निर्वता:- अणुव्रतमें विवक्षा के अधीन अभेद मान लिया जाना है । इसलिये वे गोलागूल आदि जीव नैरधिक रूप से आगे उत्पन्न होने के कारण अभी से नैरयिक ही हैं ऐसा उनमें व्यपदेश हो जाता है। गाय की पूंछ के समान जिन की पूंछ होती है-वे गोलाङ्गल हैं और इनमें जो वृषभश्रेष्ठ हैं वे गोलाङ्गलवृषभ हैं। यहां वृषभ शब्द प्रशस्त अर्थ का वाचक है । कुक्कुटवृषन आदि पदों में भी ऐसा ही जानना चाहिये । इस प्रकार का यह कथन स्वयं भगवान् महावीर ने ही किया है- जमालि आदिकों ने नहीं ।
अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-' अह भंते । सीहे, वग्घे, जहा उस्सप्पिणी उद्देसए जाब परस्सरे' एएणं निस्सीला० हे भदन्त ! सिंह, व्याघ्र, एवं उत्मर्पिणी उद्देशक में सप्तमशतक के छठे उद्देशक में प्रतिपादित यावत् भल्लूक, तरक्षु खड्गी, परासर, शरभ ये सब सिंह से लेकर परासर तक के पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनि के जीव सदाचाररहित, अणुव्रतरગાલાંગૂલૢવૃષભ આદિ જીવ નારકે રૂપે ભવિષ્યમાં ઉત્પન્ન થવાના હોવાથી, “ નારકા જ છે” એવા વ્યવહાર વર્તમાન કાળે પણ તેમના માટે કરી શકાય છે. ગાયની પૂછડી જેવુ... જેને પૂછ્યુ હાય છે એવા વાનોના સમૂહના નાયક રૂપ વાનરને ગે।લાંગૂલવૃષત્ર કહે છે અહી. વૃષભ પુઃ પ્રશસ્ત મનું વાચક છે. કુકુટવૃષભ આદિ અર્થ પણ એવા જ સમજવા. આ પ્રકારનું કથન ખુદ મહાવીર ભગવાને કર્યું છે, જમાલિ આદિ દ્વારા આ પ્રકારનું કથન કરાયુ· નથી
गौतम स्वाभीना प्रश्न - " अह भंते! सीहे, वग्घे, जहा उस्सप्पिणी उद्देसए जाव परस्सरे, पण निस्स्रीला० " हे भगवन् ! सिड, वाघ भने सातभां शतुना छट्ठा उत्सर्पिएसी उद्देशम्मां प्रतिपादित रींछ, तरस, गेंडा, परासर, શરસ, ઇત્યાદિ પૉંચેન્દ્રિય તિર્યંગ્યાર્તિક થવા કે જેએ સદાચાર રહિત,
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