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भगवतीस्त्रे जहानामए-उप्पलेइया, पउमेइवा, जाव पउमसहस्सपत्तेवा, पंकजाए, जले संखुड़े णोवलिप्पड़ पंकरएणं, णोवलिप्पइ जलरएणं' तद्यथा नाम-उत्पलं वा, पनं वा यावत् कुलुदं वा नलिनं वा सुभगं वा सौगन्धिकं वा कमलं वा, शतपत्रं का सहस्रपत्र वा, पट्टे जातं जले संचर्द्धित्तम् नोपलिप्यते पङ्करजसा, नो पलिप्यते जलरजसा-जलबिन्दुभिः ‘एवामेव जमाली वि खत्तियकुमारे कामेहि जाए, भोगेहिं संवुड़े गोवलिप्पइ कामरएणं, णोवलिप्पइ भोगरएण, गोवलिप्पड़ मित्तणाइनियगसयणसंबंधिपरिजण ' एवसेन तथैव कमलपत्रबदेवेत्यर्थः जमालिरपि क्षत्रियकुमारः कामेषु जात', भोगेषु शब्दादि रूपेषु गन्धरसस्पेशेषु संवर्द्वि तोऽपि परिपालितोऽपि वृद्धिमुपागतोऽपि नोपलिप्यते कामरूपरजसा नेके लिये भी उगुम्यर' पुरुपकी तरह दुर्लभ है-तप इसके दर्शनकी तो वातही क्या करनी, यह तो दुर्लभ है ही ' से जहानालए उप्पलेइ वा, पउमेइ वा जाव पउमसहस्तपत्तेइ वा, पंके जाए, जले संयुड्डे णोवलिप्पइ, पंकरएणं णोचलिप्पड़ जलरएणं' जैसे कोई एक उत्पल हो, या पद्म हो, यावत् कुमुद हो, नलिन हो, सुभग हो, सौगन्धिक हो, अथवा कमल हो, या शतपन हो, या सहस्र पत्र हो, ये सघ पंक कीचडमें उत्पन्न होते हैं और जल में पढ़ते हैं, परन्तु ये पंक रजसे (कीचड) लिप्त नहीं होते हैं,
औरन जलबिन्दुओंसे लिप्त होते हैं 'एचामेब जमाली वि खत्तियकुमारे कामेहिं जाए, भोगेहिं संखुड़े, नोचलिप्पा कामरएणं, णोवलिप्पइ भोगरएणं, जोवलिप्पद मित्तणाइनिघगलयणसंबंधिपरिजणं' इसी तरह कमलपनकी तरह क्षत्रियकुमार जमालिसी कामभोगले उत्पन्न हुआ है, शब्दादि रूप गन्ध स्पों में पला है-वृद्धिंगत हुआ है-फिर भी यह at Ainsी ५ म “ से जहा नामए उपलेइ वा, पउमेइ वा, जाव पउमसहस्स पत्तेइ वो, पके जाए, जले संवुझ्ढे णोवलिप पंकरएण, णो वलिप्पड जलरएणं " रेमो मे ५३, ५२ ५५, २५था भुर અથવા નલિન, સુભગ, સૌગન્ધિક અથવા કમળ અથવા શત ત્ર અથવા સહસ્ત્ર પત્ર પંકમાં જ ઉત્પન્ન થાય છે અને જળમાં જ વૃદ્ધિ પામે છે, છતાં પણ તેઓ પંકજથી પણ અલિપ્ત રહે છે અને જલબિંદુએથી પણ અલિપ્ત જ २९ छे, " एवामेव" श प्रमाणे “ जनालो वि खत्तिय कुमारे कामेहि जाए, भोगेहि संवुड्ढे, नोवलिाइ कामरएणं, णोवलि पइ, भोरएणं, णोवलिप्पड़ मित्तण'इ नियगसयगसंबंधिपरिज गेणं" क्षत्रियमा२ माथी म (पासना) દ્વારા ઉત્પન્ન થયે છે, શબ્દ, ગંધ, સ્પર્શ આદિ ભેગમાં ઉછર્યો છે છતાં