SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 393
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयचन्द्रिकाटीश०९.३०३३सू०१ षभदानि वर्णनम् सा तथा 'वरचंदणचचिया' वरचन्दनचर्चिता, वरचन्दनं श्रेष्ठश्रीग्वण्डचन्दनं चर्चित ललाटे लिप्तं यया सा वरचन्दनचर्चिता, ' वराभरणभूसियंगी' वराभरणभूषिताङ्गी-उत्तमालङ्कारालङ्कृतशरीरा, कालागुरुधूवधूविया' कालागुरुधूपधूपिता, कृष्णागुरुधूपवासिताङ्गी 'सिरिसमाणवेसा' श्रीसमानवेशा तत्र श्री लक्ष्मी: तया समानश्रेष्ठवन्त्रधारिणी 'जाव अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा' गवत् अल्पमहार्घाभरणालङ्कृतशरीरा, अल्पस् अल्पभारम् महार्य बहुमूल्यकं यदा. भरण तेनालकृतं शरीर यस्याः सा तथा, 'वहूर्हि खुज्जाहि' बहीभिः चक्र पृष्ठनाभिः दासीभिः, ' चिलाइयाहिं' चिलातदेशोद्भवाभिः 'वामणियाहि । वामानिकाभिः हस्वकायाभिः, 'वड हियाहिं ' बड़भिकाभिः बकायाभिः, 'बबरियाहिं ' वर्वरिकाभिः, वर्वरदेशोत्पन्नाभिः, 'ईसिणियाहि । इसिनिकाभिः 'जोणियाहि ' यौनिकाभिः, 'चारुगियाहिं ' चारुणिकाभिः, 'पल्हविगाहिं' सुरभिकुस्तुमवरियमित्या ' अपने केशों पर उसने समस्त ऋतुओंके सुरभित पुप्पोको गूथा 'घरचंदणचच्चिया' ललाट पर श्रेष्ठ चन्दनका लेप किया 'वराभरणभूलियंगी' अपने शरीरको उसने और भी उत्तम अलङ्कारोले अलङ्कृत किया 'कालागुरुधूवधूविया' कालागुरुके धूपसे अपने सुन्दर शरीरको उसने वासित किया 'सिरिसमाणवेसा' इस प्रकार उसने अपने आपको लक्ष्मीके समान श्रेष्ठ वनाखूषणों से विभूषित कर दिया 'जाव अप्पनहरघाभरणालंकियसरीरा' जिन अलङ्कारोंसे उसने अपने शरीरको अलङ्कृत किया था, वे भारतें तो कम थे, पर सूल्यमें बहुत कीमती थे 'बहहिं खुज्जाहिं, चिलायाहिं, वडहियाहि, बब्बरियाहिं, ईलिणियाहिं०' इसके साथ अनेक देशोंकी दासियां थीं-जो भिन्न २ वेषाँसे युक्त थीं इसी बातको अप सूत्रकार तो पाताना शथ्यां . "वरचंदणचच्चिया" पाणमा उत्तम यहनाप ध्या, “वराभरणभूसियंगि" olon ५५ घाय। म थी तो पोताना शरीर सुशोलित यु, “कालागुरुधूबधूविया" सारुनी ५५थी तर पोताना शरी२२ सुवासित यु, “ खिरित्रमाणवेसा " 241 रीत तेथे पोताना जतने सभाना रेवी वेषभूषाथी बिपित ४६१ ची “ जाव अप्पमहन्याभरणालंबियसरीरा" ते २ मराथी पोताना शरीरने विभूषित ४युत, ते २५ ४: पानमा १४i ५७महु मूल्यवान ना. “ पहूहि खुज्जाहि चिलाइयाहि, वडहियाहिं, बचरियाहि, ईजिणियाहि "तेनी साथै देशविदेशनी જે અનેક દાસીઓ હતી. તેમનું તથા તેમની વેષભૂષાનું વર્ણન કરતા સૂત્રકાર કહે છે કે
SR No.009318
Book TitleBhagwati Sutra Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy