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प्रमेयचन्द्रिका टी० श०९ उ० ३-३० सू०१ एकोकाठोपनिरपणम् ६०७ क्रमेण यथा जीवाभिगमे यावत् शुद्धदन्तद्वीपो यावत् देवलोकपरिग्रहीताः ते मनुष्याः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुधान ! एवम् अष्टाविंशतिरपि अन्तद्वीपाः स्वकेन स्वकेन आयामविष्कम्भेण भणितव्याः, नवर द्वीपे द्वीपे उद्देशक, एवं सर्वेऽपि अष्टाविंशतिरुदेशकाः भणितव्याः । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥ सू० १ ।।
नवमस्य तृतीयादिकास्त्रिंशदन्ता उद्देशकाः समाप्ताः ओ समंता संपरिक्खित्ते) वह द्वीप एक पद्मवर वेदिका से और एक वनखण्ड से चारों ओर से घिराहुआ है। (दोण्हं वि पमाणं वण्णओ य एवं एएणं कमेणं जहा जीवाभिगमे जाव सुद्धदत्त दीवे जाव देवलोग परिग्गहिया णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो) इन दोनों का वर्णन और प्रमाण इस प्रकार से, इस क्रम से जैसा जीवाभिगन सत्र में "यावत् शुद्धदन्त द्वीप है, थावत् हे आयुष्मन् असण! इस द्वीप के मनुष्य मरकर देवगांत में जाते हैं। यहां तक कहा गया है वैसा है। अर्थात् जीवाभिगम के इस सूत्रतक इनका वर्णन जैसा जीवाभिगम में किया गया है वैसा ही वर्णन वहां से लेकर यहां पर भी करना चाहिये (एवं अठ्ठावीसंपि अंतरदीवा सएणं सएणं आयामविक्खं मेणं माणियव्वा ) इसी तरह से २८ अंतर्दीप भी अपनी २ लंबाई और चौडाई से कहना चाहिये। (नवरं दीवे दीचे उदेसओ एवं सव्वे वि अठ्ठावीसं उद्देसगा भाणियन्वा-सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति) परन्तु एक एक द्वीप में एक २ उद्देशक जानना चाहिये। इस तरह लग अन्तर्टीपोंके उद्देशक ५५१२वहिाथी मन से 4 थी यारे त२५ शयेटी छ. (दोण्डं वि पमार्ण वण्णओ य एव एएणं कमेणं जीवामिगमे जाव सुद्धदत्तदीवे जाव देवलोग परिग्गहियाण ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो) 241 मन्नतुं वन निगम સૂત્રમાં જે પ્રમાણે કરવામાં આવ્યું છે, તે પ્રમાણે અહીં પણ કરવું જોઈએ. આ વિષયને અનુલક્ષીને જીવાભિગમ સૂત્રમાં “શુદ્ધદઃ દ્વીપ છે, હે આયુમન શ્રમણ ! આ દ્વીપના મનુષ્ય મરીને દેવગતિમાં જાય છે.” આ સૂત્રપાઠ पान्तनु थन युछे, ते ४थन मी अख) ४२वु नये ( एवं अदाबीसंवि अंतरदीवा सएणं सएणं आयामविक्खभेणं भाणियव्वा) मा शत ૨૮ અંતર્દીમાંના પ્રત્યેકની લંબાઈ અને પહોળાઈ કહેવી જોઈએ
(नवर दीवे दीवे उद्देसओ एवं सव्वे वि अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियव्या सेवं भंते ! सेवं भते ! त्ति ) ५२न्तु प्रत्ये: दीपनो मे से देश सभरवी. આ રીતે ૨૮ અન્તદ્વીપના ૨૮ ઉદ્દેશકે થાય છે ગૌતમ સ્વામી મહાવીર