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भगवतीसूत्रे सिद्धिझारणत्वादित्यभिप्रायेण भगवानाह-' गोयमा ! जं णं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्वंति, जाव जे ते एवमासु मिच्छा ते एवमाहंसु, हे गौतम ! यत् खलु ते अन्ययूथिकाः-अन्यतीथिकाः एवम् उक्तप्रकारम् आख्यान्ति यावत्-भाषन्ते, प्रज्ञापयन्ति, मरूपयन्ति च, ये ते एवमाहुः मिथ्या ते एवमुक्तप्रकारमाहुः । स्वसिद्धान्तं प्रतिपादयति-' अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाय परूवेमि' हे गौतम ! अहं पुनरेवं वक्ष्यमाणप्रकारम् श्रुतयुक्त शीलं श्रेय इत्येवम् आख्यामि
और इनके समुदायपक्ष में सम्यक्त्व प्रकट करने के लिये गौतम से कहते हैं-(गोयमा) हे गौतम । (जं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति, जाव जे ते एवमासु मिच्छा ते एवमाहंसु) जो इन अन्यतीर्थिक जनों ने इस पूर्वोक्तरूप से कहा है, यावत्-प्ररूपणा की है-सो सब गलत है-असत्य है। क्यों कि केवल शील, केवल श्रुत और परस्पर निरपेक्ष शील श्रुत, अपने २ फल की सिद्धि कराने में असमर्थ हैं। समुदाय पक्ष में ही ये तीनों फलसिद्धि के प्रति कारण हैं। इसलिये हे गौतम ! ( एवमाइक्खामि, जाव परूवेमि ) मैं ऐसा कहता हूं यावत् प्ररूपित करता हूं कि श्रुत युक्त शील श्रेष्ठ है। यहां पूर्वोक्त यावत् पद से "भाषन्ते, प्रज्ञापयन्ति ' इन क्रियापदों का तथा (जाव पख्वेमि) में आये हुए इस यावत् पद से (भाषे प्रज्ञापयामि ) इन क्रियापदों का ग्रहण हुआ है। उन्हों ने पूर्वोक्तरूप से जो स्वसिद्धान्त का कथन किया
મહાવીર પ્રભુ તે ત્રણ માન્યતાઓમાં મિથ્યાત્વ પ્રકટ કરવા નિમિત્તે અને તેમના સમુદાય પક્ષે સમ્યકત્વ પ્રકટ કરવાને માટે ગૌતમસ્વામીને કહે છે" गोयमा !" गौतम । “ ज ण ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति, जाव जे ते एवमासु मिच्छो ते एवमासु" भन्यतार्थाय सेवा पूवात मान्यता કહી છે, પ્રજ્ઞાપિત કરી છે (કાવત) અને પ્રરૂપિત કરી છે–તે તેમની માન્યતા भिथ्या (मसत्य मोटर) छ. ४२ मात्र शीतथी, मात्र ज्ञानथी, 3 પરસ્પર નિરપેક્ષ શીલશ્રુતથી અભીષ્ટ ફળની પ્રાપ્તિ થઈ શકતી નથી. તે ત્રણે સમુદાય પક્ષમાં જ (ત્રણેને સાથે ઉપયોગ કરવાથી) ફલસિદ્ધિના કારણરૂપ पने छ. तथा ७ गौतम ! ( एवमाइक्खामि जाव परूवेमि) हुँ तो मे ४९ છું, એવી પ્રજ્ઞાપના કરૂ છું. (યાવત્ ) એવી પ્રરૂપણા કરું છું કે શ્રુતયુક્ત शासन श्रेष्ट छ. महा पूर्वरित ' यातू' ५४थी “भाषन्ते, प्रज्ञापयन्ति " मा लियापहोने तथा " जाव परूवेमि" भां सावता यावत् ' पहथी “ भाषे, प्रज्ञापयामि " यापहोने ४२पामां मावे छे. व महापीर प्रभु