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११० औ हार हार्दिकस्य परस्यासम्बन्धनि०४२९ नो बन्धको भवति, अपितु अवन्धको भवति, ' एवं वेउब्वियम्स वि, तेयाम्माणं जव ओरालिवणं समं भणियं, तहेव भाणियन्त्रं ' एवम् उक्तरीत्या आहारकशरीरवन्धको जीवो वैकियस्यापि शरीरस्य वन्धको न भवति, अपितु अवन्धक एव भवति, तेजसकार्मणयोः शरीरयोस्तु यथा औदारिकेण सम - साकं भणितम्'देशवन्धक एव, नो सर्वबन्धक ' इति प्रतिपादितं तथैव भणितव्यम्, तथा च आहार सर्ववन्धको जीवः तैजसकार्मणशरीरयोर्देशबन्धको भवति नो सर्ववन्धक इत्याशयः, अथ आहारकशरीरस्य देशवन्धेन सह अन्येषां बन्धं प्ररूपयति- जस्सणं भंते ! आहारकसरीरस्स देसबंधे, सेणं भंते ! ओरालियसरीरस्स किं वंधए, अवं
(नो बंधए, अधए ) आहारक शरीर का सर्वबंधक जीव औदारिक शरीर का बन्धक नहीं होता है, किन्तु वह उसका अबंधक होता है। ( एवं वेव्वियस्स वि, तेयाक्रम्माणं जहेच ओरालिएर्ण समं भणियं तहेव भाणियव्वं ) इसी तरह से आहारक शरीर का सर्वत्रधक जीव वैशरीर का बंधक नहीं होता है, अपि तु वह इसका अबंधक ही होता है । तथा औदारिक शरीर का सर्वबधक जीव जिस प्रकार से are और कार्मणशरीर का देशबंधक कहा गया है उसी तरह से आहारकशरीर का सर्वबंधक जीव तैजसकार्मणशरीर का देशव धक ही होता है, सर्वबंधक नहीं होना ।
अब सूत्रकार आहारक शरीर के देशय ध के साथ अन्य शरीरों के बन्ध का प्ररूपण करते हैं - इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा (जस्स णं भंते! आहारगसरीरस्स देसघंधे से णं भंते! ओरालियसरीरस्स किं व मोहा
होय छे ( एवं
यस वि ) मे प्रभा माहारशरीरनो सर्पमध व वैयिशरीरने सुध होतो नथी, यायुध होय छे. ( वेयाकम्माणं जदेव ओ. रालिएणं सम भणियं तहेव भाणियन्त्र ) देवी रीते गौहारि शरीरमा सर्वः મધક જીવ તૈજસ અને કાણુ શરીરના દેશમ ́ધક હાય છે, એજ પ્રમાણે આહારકશરીરને સબધક જીવ પણ તૈજસ અને કાણુ શરીરના દેશ મધક જ હાય છે-સબધક હાતા નથી.
गौतम ! ( नो बंधए, अबंध) भाडारम्शरीरने। सर्वमंध
रिङ शरीरने मध होती थी, पशु ते तेन समंध
હવે સૂત્રકાર આહારક શરીરના દેશમધની સાથે અન્ય શરીરાના બધની अ३पया ४रे छे-गौतमस्वामीनी प्रश्न - ( जस्त णं मते ! आहारगसरीरस्स देस बचे, सेभवे ! ओळियसरीरस्त किं बधए, अधर १ ) से हन्त ने छ