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प्रमेयचन्द्रिका टीका श.८ उ.६ स.३ निम्रन्थाराधकतानिरूपणम् ७०१ करेज्जा' सच निर्ग्रन्थः संप्रस्थितः किन्तु असंप्राप्तः गन्तव्यस्थानमप्राप्तः आत्मना च स्वयमेव पूर्वमेव स्थविराश्चेत् कालं कुयुः ' सेणं भंते ! किं आराहए ? विराहए ? ' हे भदन्त ! स खलु निर्ग्रन्थः किम् आराधको भवति, विराधकोवा ? भगवानाह- 'गोयमा ! आराहए, नो विराहए' हे गौतम ! स निर्ग्रन्थः आराधको भवति, नो विराधकः, ३ ‘सेय स पढ़िए असंपत्ते अप्पणाय पुन्बामेव कालं करेज्जा, सेणं भंते ! कि आराहए, विराहए ?" सचानगारः संप्रस्थितः किन्तु असमाप्तः आत्मना च स्वयमेव पूर्वमेव काल कुर्यात् स खलु हे भदन्त ! किमाराधको भवति ? विराधको वा भवति ? असंपत्ते अप्पणाय पुवामेव थेराय कालं करेजा' अव गौतम प्रभुसे ऐसा पूछते हैं-वह निर्गन्थ श्रमण वहांसे प्रायश्चित्त आदि ग्रहण करने के लिये स्थविरों के पास चल दे-परन्तु जब तक वह उनके पास नहीं आपाना है कि इतने में वे स्थविर काल कर जाय-तो 'सेणं भंते ! कि भाराहए, विराहए' हे भदन्त ! वह श्रमण निम्रन्थ आराधक होता है था पिराधक होता है ? उत्सर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा' हे गौतम! बह निग्रन्थ श्रमण 'आराहए नो चिराहए' आराधक होता है, विराधक नहीं । अब गौतम स्वामी प्रसुसे ऐसा पूछते हैं कि'लेथ संपहिए असंपत्ते, अप्पणाय पुवामेव काल करेज्जा, सेणं भंते ! किं आराहए, विराहए, यह निर्ग्रन्थ श्रमण वहांसे तो चल देता हैपरन्तु उन स्थविरेकेि पास आनेले पहिले यदि उसकी मृत्यु होती हैतो ऐसी हालत में वह आराधक है था विराधक है ? उत्तर में प्रभु थेराय काल करेज्जा' हे महत! ते नियय मावायना साह ४२वा निमित ત્યાંથી રવાના થાય, પરંતુ તે સ્થવિરેની પાસે પહોંચતા પહેલા સ્થવિરે કાળ કરી જાય તો ‘से णं भंते ! कि आराहए, विराहए ? मन्त! ते निथ ५ सयभनी આરાધક ગણાય કે વિધારક?
महावीर प्रभुन। उत्तर :- 'गोयमा !' गौतम! 'आराहए नो विराहए' તે નિર્ણયને સંયમને આરાધક જ કહેવાય, વિરાધક કહેવાય નહીં.
गौतम स्वामी प्रश्न :- ‘से य संपढिए असंपत्ते, अप्पणा य पुयामेव काल करेजा, से णं भंते ! कि आरोहए, विराहए ? ' महत! निय આલોચના આદિ કરવા નિમિત્તે વિરેની પાસે જવા માટે રવાના થાય છે, પરંતુ તેમની પાસે પહોંચતા પહેલાં માર્ગમાં જ કાળ કરી જાય છે, તે તેને આરાધક કહેવાય કે વિરાધક?