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भगवती
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सा खलु भदन्त ! किम् आराधिका विराधिका ? गौतम ! आराधिका नो विराधिका, साच संप्रस्थिता यथा निर्ग्रन्थस्य त्रयो गमा भणिता एवं निर्ग्रन्थ्या अपि त्रय आलापका भणितव्याः यावत् आराधिका, नो विराधिका, तद और बाद में उसके मनमें ऐसा विचार आजावे कि मैं पहिले यहीं इस अकृत्यस्थानकी आलोचना करूँ यावत् तत्कर्म को स्वीकार करूँइसके बाद प्रवर्तिनी के पास वृद्ध साध्वी के समीप आलोचना करूँगी यावत् तपकर्म को स्वीकार करूंगी. ऐसा विचार कर (साय सपहिया असंपत्ता पर्वात्तणी य असुहा सिया) वह साध्वी प्रवर्तिनी के लिये वहां से चल दे, इसके वहां पहुँचने के पहिले यदि वह प्रवर्तिनी मूक हो जाती है तो (सा णं भंते । किं आराहिया विराहिया) हे भदन्त ! वह साध्वी आराधक होगी या विराधक होगी ? ( गोयमा) हे गौतम । ( आराहिया नो विराहिया) वह साध्वी आराधक है विराधक नहीं । ( जहा निग्रंथस्स तित्रिगमा भणिया, एव निग्गंथीए वि तिन्नि आलावगा भाणियव्वा जाव आराहिया नो विराहिया) जिस प्रकार से निर्ग्रन्थ के तीन आलापक कहे हैं उसी तरह से साध्वी के भी तीन आलापक कहना चाहिये ! यावत् वह आराधक है ગયું હોય અને ત્યાર બાદ તેના મનમાં એવા વિચાર થાય કે હું પહેલાં અહી જ આ અકૃત્યસ્થાનની આલાચના આદિ કરી લઉ (अहीं 'तयाना स्वीअर उरी उ', ' ત્યા સુધીમાં સઘળાં પદ ગ્રહણ કરવા). ત્યાર ખાદ પ્રવર્તિની પાસે (વૃદ્ધ સાઘ્વીજીની પાસે) આલેચના આદિ કરી લઇશ ( अडी यागु तपना स्वीअर मरीश', त्यां सुधीनां धूत होने श्रश्वा लेागो ) या भमाएो विचार उरीने (सा य संपट्टिया असंपत्ता पवत्तिणि य अमुहा सिया) ते साध्वील ते प्रवर्तिनी पासे भवाने नीडजे छे પણ તે તેમની પાસે પહેાંચે તે પહેલા જ તે પ્રવૃતિની મૂક (મૂંગા) થઈ જાય છે, તો ( साणं भंते । किं आरा हिया विराहिया ? ) हे अहन्त! ते साध्वीकाराध गायाय } विराध ! ( गोयमा ! ) हे गौतम! ( आराहिया नो विराहिया ) ते साध्वी ने मारा ही शाय, विरोध उसी शाय नहीं. ( जहा निग्गंथस्स तिन्नि गमा भणिया, एवं निग्गंथीए वि तिनि आलावगा भाणियन्वा जाव आराहिया नो विराहिया) त्यार माह निर्यथनात्र आसाय नेवा साध्वीलना પણું ગણુ આલાપક કહેવા જોઇએ. • તેને આરાધક જ કહેવાય વિરાધક નહીં', ત્યા सुधीनु पूर्वाऽत समस्त उथन अप भए उ लेमे. ( से केणद्वेगं भंते !
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