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भगवती
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स्यात्, 'एवं जाव सहि पडिग्गहेडिं' एवं रीत्या यावत् - त्रिचतुर पञ्चष्ट् सप्ताष्टनवभिः दशभिश्च प्रतिग्रहैः पात्रैरुपनिमन्त्रयेद् इत्यादि पूर्वोक्तरीत्या स्वयमूहनीयम् एवं जहा पडिम्गहवत्तन्वया भणिया, एवं गोच्छगरयहरण चोलपट कंबल लट्टी संथारगवत्तव्या य भाणियन्या एवं रीत्या गुच्छंकरजोहरण - चील - पट्टक - कम्बल - राष्टि-संस्तारक वक्तव्यता च भणितव्या, 'जात्र दस संथा एहिं उनिमंतेज्जा जान परिद्वावेयव्वा सिया' यावत् निर्ग्रन्थ च खलु गृहपतिकुलं संस्तारकपातप्रतिज्ञया अनुप्रविष्ट कश्चिद्गृहपतिः द्वित्रि चतुः पञ्च षट् सप्तान्टम नवभिः दशभिश्च संस्तारकैः उपनिमन्त्रयेत् यावतदसहि पडिग्गहे हिं०' इसी तरह से यदि कोई गृहस्थ उस निर्ग्रन्थ के लिये तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ और दश पात्रों द्वारा उपनिमन्त्रित करता है तो इस विषय में भी समस्त कथन पहिले की तरह से ही अपनेआप समझ लेना चाहिये । ' एवं जहा पडि
वत्वया भणिया, एवं गोच्छ्ग, रयहरण, चोलपट्टग, कंबल, लट्ठी, संथारगवतव्या य भाणियव्चा' जिस तरहसे पात्र ग्रहण करने के विषय में यह कथन किया गया है उसी तरह से गुच्छा, रजोहरण, चोलण्gs, कम्बल यष्टि और संस्तारक के विषय की वक्तव्यता भी जाननी चाहिये. 'जाव दसहि संथार एहि उवनिम तेज्जो tra disgracer सिया' जैसे - संस्तारकपातप्रतिज्ञा से सस्तारक प्राप्त करने का इच्छा में गृहपति के घर पर गये हुए निर्ग्रन्थ को यदि कोई गृहस्थ दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ और दश
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ભૂમિની તલેખના અને પ્રમાના કરીને પરઠી દેવું જોઇએ एवं जाव सहि पडिग्गदेहि . ' अमाशे ले आई गृहस्थ ते निर्यथने भए, यार, पांय, छ, સાત, આઠ, નવ અને દસ પાત્ર આપીને આ પ્રમાણે કહે છે કે- જે આયુષ્મન ! આમાંથી એક પાત્ર આપના ઉપયોગમાં લેજો, ખાસીનાં એ, ગણુ તિ યાત્રા અમુઢ્ઢ શ્રમણને આપી દેશા' ઇત્યાદિ સમસ્ત કથન આગળ મુજબ જ સમજવું. एवं जहा पsिहवत्तवया भणिया, एवं गोच्छ्ग, रयहरण, चोलपट्टग, कंबल, लट्ठी, संथारग वत्तव्त्रया य भाणियन्ना' पात्र युवा विषेने अथन अश्वामां भावयु छे, એવુંજ કયન ગેચ્છા, રજોહરણ, ચાલપટ્ટક, કખલ, દંડ અને સસ્તારક વિષે પણ सम. 'जव दसर्हि संस्थारएहि उबनिमंतेज्जा जाव परिद्वावेयन्वा सिया' સસ્તારકપાત પ્રતિજ્ઞાથી-સંસ્તારક પ્રાપ્ત કરવાની ઇચ્છાથી કેાઈ ગૃહસ્થને ઘેર ગયેલા तिर्थ थने ते गृहस्थ मनुस्मे मे, ऋशु, यार, पांथ छ, साते, खोड, नवे ते हस