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म. टीका श८ उ.६ सू०२ निर्यन्यदानधर्म निरूपणम् । कुरु 'एग थेराणं दलयाहि' एकम् अपर प्रतिग्रहं स्थविराणां स्थविरेभ्यो देहि,
'से य तं पडिग्गहेज्जा' स निम्रन्यश्च तं स्थविरप्रतिग्रहं पानं प्रतिगृह्णीयात् 'तहेन जाव तं नो अप्पणा परिभुजेजा, नो अन्नेसिं दावए' तथैव पूर्वोक्तवदेव यावत् स्थविराश्च तस्य अनुगवेषयितव्याः स्युः, इत्यादि स संग्रामस्, तांश्च स्थनिरान् अनुगवेषयन् नो पश्येत् तदा तं स्थविरमतिग्रहं नो आत्मना स्वयमेव उपभुञ्जीत, नो वा अन्येषाम् अन्येभ्यो दद्यात् दापयेद्वा, 'सेमं तं चेव जाव परिठ्ठावेयवेरिया' शेषं तदेव पूर्वोक्तादेवयावत्-एकान्ते अनापाते अचित्ते बहुप्रास्लुके स्थण्डिले प्रतिलेख्य प्रमाज्यं परिष्ठापयितव्यः अपने काम में लेना और यह दूसरा पात्र अमुक निर्ग्रन्थ के लिये दे देना से य तं पडिग्गहेज्जा' इस तरह से वह दूसरे श्रमण को दिये जाने वाले उस दूसरे पात्र को ले लेता है। तहेव जाव तं नो अप्पणा परिटु जेज्जा णो अन्नेसिं दावए' लेकर वह अपने स्थान पर आ जाता है और आकर वह उस स्थविर की गवेषणा करता है कि जिसके लिये वह पात्र देने को कहा गया है। इस तरह उस स्थविर की गवेषणा करता हुआ वह यदि उस स्थविर को पा लेता है तो उसे वह पात्र दे देना चाहिये-नहीं मिलने पर उसे अपने उपयोग में नहीं लेना चाहिये और न किसी दूसरे साधु को देना चाहिये, या दिलवाना चाहिये । 'सेसं तं चेव जाव परिहावेयवासिया' किन्तु पिण्डपात प्रकरण में कहे अनुसार उसे उस पान को एकान्त, अनापात, अचित्त, बहुमामुक स्थण्डिल में प्रतिलेखना
और प्रमार्जना करके प्रतिष्ठापित कर देना चाहिये । “एवं जाव मापी हो' 'सेय तं पडिग्गहेजा' मा शते ulad भभू नियने मा५५। भानु पात्र ५ ते ४ छ 'तहेच जाव तं नो अप्पणा परि जेजा णो अन्नेसि दावएत पावन सहने तपातात स्थान पाछ। २ छ भने पछी ते નિર્ચ થની શોધ કરે છે, જે તેને તે નિયંચને ભેટો થઈ જાય, તે તે તેમને તે પાત્ર આપી દે છે. પણ જો તે સાધુ તેને મળે જ નહી તે તે પોતે તે પારને ઉપયોગ કરી શકતો નથી. અને તે સાધુ સિવાયના બીજા કોઈ પણ સાધુને તે પાત્ર તે साप as नयी. २४ तम ४२वामा ने भात्ताहानने पहाणे छ 'सेसं सं चेव जाच परिहावेयन्वे सिया' पर पित प्र४२मा sat मनुसार तरी व પાત્રને એકાન્ત, મનુષ્યના અવરજવર વિનાની, અચિત્ત અને બકાસુક ભૂમિમાં