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प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ७ उ. ९ सू.१ प्रमत्तसाधुनिरूपणम् ६६९ पुद्गलान् पर्यादाय विकुर्वति, अन्यत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुर्वति ? गौतम ! इहगतान् पुद्गलान् पर्यादाय चिकुर्वति, नो तत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुर्वति, नो अन्यत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुर्वति, एवम् एकवर्णम् अनेकरूपं चत्वारोभङ्गाः, यथा षष्ठशते नवमे उद्देशके तथा इहापि भणितव्यम्, नवरम् अनगारः इहगतः इहगतांश्चैव पुद्गलान् पर्यादाय पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ ) हे भदन्त ! वह असंवृत-अनगार क्या मनुष्यलोकमें रहे हुए पुद्गलोंको ग्रहण करके विकुर्वणा करता है ? या तत्रगत विकुर्वणा करके जहां पर उसे जाना है वहां के पुद्गलोंको ग्रहण करके वह विकुर्वणा करता है ? या इन दोनों स्थानोंसे अन्यत्र रहे हुए पुद्गलोंको ग्रहण करके विकुर्वणा करता है ? (गोयमा) हे गौतम ! (इह गए पोग्गले परियाइत्ता विउ. व्वइ, णो तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ, णो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ) वह असंवृत अनगार मनुष्यलोकगत पुद्गलोंको ग्रहण करके चिकुर्वणा करता है तत्रगत जहां पर उसे जाना है वहां के पुद्गलोंको ग्रहण करके विकुर्वणा नहीं करता है
और न अन्यत्रगत पुद्गलोंको ग्रहण करके चिकुर्वणा करता है। (एव एगवन्न अणेगरूव चउभंगो जहा छट्ठसए नवमे उदेसए तहा
इहावि भाणियव्वं नवरं अणगारे इहगयं इहगए चेव पोग्गले परि- याइत्ता विउव्वइ) इसी तरहसे एकवर्ण वाले अनेकरूप आदिकों की विकुर्वणा करनेके विषयमें चार भंग कर लेना चाहिये । ये चार भंग जैसे छठे शतकके नौवें उद्देशकमें कहे गये हैं वैसे ही यहां मन्य स्थानमा रहेसा हसाने ४६शन विवा ४३ छ १ (गोयमा !) गौतम । (इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ, णो तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ, णो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउबड) ते मस वृत भा॥२ મનુષ્યલેકગત પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરીને જ વિદુર્વણા કરે છે, જ્યાં તેને જવાનું હોય છે ત્યાના પુદગલેને ગ્રહણ કરીને વિક્વણુ કરતા નથી, અને અન્યત્રગત પુદ્ગલેને भ६५ ४१२ प विgणा ४२नथी (एवं एगवण्णं अणेगरूवं चउभंगो-जहा छट्ठसए नवमे उदेसए तहा इहा वि भाणियव्य -नवर-अणगारे इहायं इहगए चेव पोग्गले परियाइत्ता विउबइ) से प्रभार मे १ वाणा मन यानी વિદુર્વણું કરવાના વિષયમાં ચાર ભંગ (વિક૯પ) બનાવવા જોઈએ છઠ્ઠા શતકના નવમા