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प्रमेयचन्द्रिकाटीका श.७ उ. ३ सू. ५ वेदनानिर्जरास्वरूपनिरूपणम्
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निर्जरा उच्यते, किंवा या निर्जरा भवति सा एव वेदना उच्यते ? भगवानाह - 'गोयमा ! णो इण्डे समट्ठे' हे गौतम ! नायमर्थः समर्थः वेदना एव निर्जरा न भवति, न वा निर्जरा एव वेदना भवति । गौतमस्तत्र हेतु पृच्छति - 'मे केणणं भते ! एवं बुच्चइ- जा वेयणा न सा निज्जरा, जा निज्जरा न सा वेयणा ?' हे भदन्त ! तत् केनार्थेन कथं तावत् - एत्रमुच्यते यत्- या वेदना न सा निर्जरा, या निर्जरा न सा वेदना वा भवति? भगवानाह - 'गोयमा ' कम्मवेयणा, णो कम्मनिजरा' हे गौतम! वेदना पर उनकी वेदनाके विषय में कथन किया है इसमें गौतमने प्रभु से ऐसा पूछा है कि - 'से शूणं भंते! जा वेयणा सा निज्जरा, जा निज्जरा सा वेयणा' हे भदन्त ! क्या यहनिश्चित है कि जो वेदना होती है, वही निर्जरा कहलाती है ? या जो निर्जरा होती है वही वेदना कहलाती है ? इसके उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं कि- 'गोयमाणो इण सनट्टे' हे गौतम | यह अर्थ समर्थ नहीं है - अर्थात् न वेदना निर्जरारूप होती है ओर न निर्जरा वेदनारूप ही होती है। गौतम इस विषय में कारण जाननेकी इच्छा से प्रभुसे पूछते हैं कि-' से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ, जा वेयणा न सा निज्जरा, जा निज्जरा न सा वेयणा' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि जो वेदना है वह निर्जरा रूप नहीं होती है । और जो निर्जरा है वह वेदनारूप नहीं होती है । इसके उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं 'गोयमा' हे गौतम ! 'कम કથન કર્યું છે—આ વિષયને અનુલક્ષીને ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને આ પ્રમાણે अभ पूछे छे - 'से पूणॅ भंते ! जा वेयणा सा निज्जरा, जा निज्जरा सा देयणा? હે ભદન્ત! શું એ વાત ખરી છે કે જીવ દ્વારા જે વેદન કરાય છે તે વેદનનેજ નિરા કહે છે અને જે નિર્જરા થાય છે તેને જ વેદના કહે છે? તેના ઉત્તર આપતા મહાવીર प्रभु डे - 'गोयमा ! णों इणडे समट्टे ' डे गौतम ! मे बात भराभर नथी. એટલે કે વેદના નિરારૂપ હાતી નથી અને નિરા વેદનારૂપ હતી નથી તેનું કારણુ જાણવાની જિજ્ઞાસાથી ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને એવો પ્રશ્ન પૂછે છે કે— 'से केद्वे भंते ! एवं वुच्चर, जा वेयणा न सा निज्जरा, जा निज्जरा न सा वेयणा ?' हे लहन्त ! साथ था अरोह। छो ने वेहना छे ते નિરારૂપ નથી, અને જે નિરા છે તે વૈદ્યનારૂપ હાતી નથી ?
तेना उत्तर भापता महावीर अलु उडेछे - 'गोयमा ! कम्मवेयणा णो कम्म निज्जरा' हे गौतम! वेदना कश्य होय छे अने निरा नाम होय .