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________________ प्रमेयचन्द्रिकाटीका श.६ उ.६.२ मारणान्तिकसमुद्घातस्वरूपनिरूपणम् १७ उपपद्यते, स खलु भदन्त ! तत्र गत एव ? तदेव यावत्-आहरेसुवा, परिणमयेसु वा, शरीरं वा बध्नीयात् । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥ २॥ ____टीका-रत्नप्रभादिषु मारणान्तिकसमुद्घात-स्वरूपमाह-'जीवेणं भंते ! इत्यादि । 'नीवेणं भंते ! मारणंतिय समुग्धाएणं समोहए' हे भदन्त ! यो जीवः खलु मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतः युक्तः 'जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु अण्णयरंसि निरयावासंसि नेरइयत्ताए उववजिचए' अस्यां रत्नप्रभायां त्रिंशति निग्यावासशतसहस्रेषु त्रिंशल्लक्षनरकावासेषु अन्यतरस्मिन् निरयावासे नैरयिकतया उपपत्तुम् भव्यः योग्यो भवति, 'सेणं भंते ! तत्थगए चेव आहारेजवा, परिणामेजवा; सरीरं वा णमाता है और अपने शरीरकी निष्पत्ति करता है । (सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति) हे भदन्त ! जैसा आपने कहा है वह ऐसा ही है हे भदन्त ! जैसा आपने कहा है वह सच ऐसा ही हैं । टोकार्थ- सूत्रकार इस सूत्र द्वारा रत्नप्रभा आदि पृथिवियों में मारणान्तिक समुद्धात के स्वरूप को कह रहे हैं- इसमें गौतमने प्रभुसे ऐसा पूछा है कि- 'जीवेणं भंते ! मारणतियसमुग्घाएणं समोहए' हे भदन्त ! जो जीव मारणान्तिकसमुद्धात से समहतयुक्त है और वह 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु अण्णयरंसि निरयावासंसि नेरइयत्ताए उवजित्तए भविए' इस समुद्धात से समवहत होकर रत्नप्रभा पृथिवी के ३० लाख नरकावासों में से किसी एक नरकावास में उत्पन्न होने के योग्य है 'से णं भंते । तत्थगए चेव आहारेजवा, परिणामेजया, सरीरं बंधेजा' ही सुधानु समस्त पू४ित ४थन ! ४२j (सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति) હે ભદન્ત ! આપની વાત બિલકુલ સાચી છે હે ભદન્ત ! આપે જે કહ્યું તે યથાર્થ જ છે. ટીકાથ–સૂત્રકાર આ સૂત્ર દ્વારા રત્નપ્રભા આદિ પૃથ્વીઓમાં મારણાન્તિક સમુદ્યાતના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે–આ વિષયને અનુલક્ષીને ગૌતમસ્વામી મહાવીર प्रभुने मेवा प्रश्न पूछे छे 3 'जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्याएणं समोहए' HE-! भारान्ति समुधातथा युटत 311 मे ७१ 'इमीसे रयगप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु अण्णयरंसि निरयावासंसि नेरइत्ताए उववज्जित्तए भविए' ते समुधातथा युत धन २त्नप्रभा थाना ३० Anm न२४पासोमाना मे न२वासमा उत्पन्न यवान योग्य छ, 'से णं भंते ! तत्थगए चेव आहारेज्ज वा, परिणामेज वा, सरीरं बंधेज्जा' ताम्मेवी
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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