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भगवतीमत्रे खाइम-साइमेणं प्रडिलाभेमाणे किं लभइ ?' प्रासुकपणीयेन-प्रगता निर्गता असवः प्राणाः यस्मात् स प्रासुः, स एव प्रासुकः अचित्तः। तथा एषणीयेन एपणादोपरहितेन अशन-पान-खादिम-स्वादियेन प्रतिलाभयन् किम् लभते ? प्रतिलाभयतस्तस्य श्रमणोपासकरय को लाभो भवति ? भगवानाह- 'गोयमा ! समणोवासए णं तहारूवं समणं वा जाव-पडिलाभेमाणे' हे गौतम ! श्रमणो. पासकः खलु तथा रूपं श्रमणं वा, यावत्-माहनं वा, प्रासुकैपणीयेन अशन-पानखादिम- स्वादिमेन प्रतिलाशयत् 'तहारूबम्स समणस्स वा माहणस्स वा समाहि उप्पाएड' तथारूपस्य श्रमणस्य वा, माइनस्य वा समाधिमुत्पादयति 'समाहिकारए णं तमेव समाहि पडिलभइ' अथ च समाधिकारकः खलु श्रावकः तमेव समाधि प्रतिलभते, इति श्रमणमाहनेभ्यः प्रासुकैपणीयाशनादिदातुः श्रावकस्य करनेवाले माहन के लिये, जीव रहित- अचित्त ऐसे मासुक तथा एषणा दोप से रहित ऐसे एषणीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम रूप चार पकार के आहार से प्रतिलाभित करता हुआ- अर्थात् चार प्रकार का आहार दान प्रदान करता हुआ किस वस्तु का लाभ करता है। पूछने का अभिप्राय एसा है कि तथारूप वाले श्रमण आदिकों को दान देने से श्रावक के लिये क्या फायदा होता है ?-उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं कि- 'गोयमा' हे गौतम! 'समणोवासए णं तहारूवं समणं वा जाव पडिलाभेमणे' श्रमणोपासक श्रावक जब तथारूपधारी श्रमण को यावत्-माहन को प्रासुकएषणीय अशल, पान, खादिम और स्वादिम रूप चार प्रकारके आहारसे प्रतिलाभित करता है तब वह 'तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा समाहिंउपाए इ' तथारूपधारी श्रमण अथवा माहनके लिये समाधिका उत्पादक होता है 'समाहिकोरए णं तमेव समाहिं पडिलभई' इस तरहसे समाधिका उत्पादक वह
પ્રશ્નનો આશય એ છે કે શ્રમણ આદિને દેષરહિત આહારપાણે વહરાવનાર श्रावने शाम थाय छ १ तेन। उत्तर मापता महावीर प्रभु ४ छ : 'गोयमा!' हे गौतम ! 'समणोवासए णं तहारूवं जाच पडिलाभेमाणे' श्रमपास (श्राव:) જ્યારે તથારૂપધારી શ્રમણને અથવા માહનને પ્રાસુક, એષય અશન, પાન, ખાદ भने २पाध३५ २२ अाना माथी प्रतितामित ४२ छे, त्यारे 'तहारुवस्स समणम्स वा माहणस्स का समाहिं उप्पाएड' ते तथा३५चारी अभार मयवा मानने भाट समाधिन। उत्पा६४ मते छ, 'समाहिकारए ण तमेव समाहि पडिलभड' शते समाधिन। त्पा मनना। ते श्राव४ पातेये समाधिना