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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ७ उ. १ स् ३ श्रमणोपासक क्रियास्वरूपनिरूपणम् २६१ केवली' उत्पन्नज्ञान - - दर्शनधरः अर्हन् जिनः केवली 'जीवे त्रि जाणइ, पासड' जीवानपि जानाति पश्यति 'अजीवेऽवि जाणड, पास, अजीवानपि जानाति पश्यति, 'तओ पच्छा सिज्झड जात्र अंत करेइ' ततः पश्चात् तदनन्तरं सिद्ध्यति यावत्-अन्तं करोति यावत्करणात् 'बुज्झइ, मुच्चर, परिनिन्दाइ, सच्चदुक्खाणं' बुध्यते, मुच्यते, परिनिर्वाति सर्वदुःखानाम्' इति संग्राहम् ॥ ०२ ॥ श्रमणोपासकवक्तव्यता | मूलम् -- समणोवासयस्स णं भंते ! सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स, तस्स णं भंते! किं इरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! णो इरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कजइ । से केणट्टेणं जाव हा जिणे केवली जीवे वि जाणइ, पास, अजीवे वि जाणड पासह तओ पच्छा सिज्झइ, जाव अंत करेड़' 'ऐसे शाश्वत लोक में कि जो नीचे के भागमें विस्तीर्ण है यावत ऊपर के भाग में जो उर्ध्वमुखवाले मृदग के जैसा है उत्पन्न हुए ज्ञान दर्शनको धारण करनेवाला अर्हत जिन केवली भगवान् जीवपदार्थ को भी जानते देखते है, अजीवपदार्थ को भी जानते देखते हैं । इस के बाद शेप अघातिया कर्मों को नष्ट कर फिर वे सिद्ध हो जाते हैं यावत् अन्तकर्त्ता बन जाते हैं । यहां 'यावत' पद से "बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वाह. सव्वदुक्खाणं' इन पदोंका संग्रह हुआ है । इनका भी अर्थ पीछे लिखा जा चुका है ॥ सू० २ ॥ दंसणधारे अरहा जिणे केवली जीवे वि जाणड पास, अजीवे वि जाणड पास ' નીચેના ભાગમાં વિરતી, વચ્ચેથી સંકીણુ અને ઉપરથી ઉષ્ણ મુખે મૂકેલા મૃદંગના જેવા આકારવાળા આ શાશ્વતલેાકમા ઉત્પન્ન થયેલા જ્ઞાન (કેવળજ્ઞાન ) અને દર્શનને ધારણ કરનારા અહંત જિન કેવલી ભગવાન જીવપદાર્થને પણ જાણે છે અને દેખે છે, તથા અજીવપદાને પણ જાણે છે અને દેખે છે 'तओ पच्छा सिज्झइ, जाव अंतं करेइ' त्यार माह जाडीना अधातियां अमेनि नाश अरीने ते सिद्ध था। लय थे, બુદ્ધ થઈ જાય છે, મુકત થઇ જાય છે, સમત કર્માંના આત્યંતિક ક્ષય કરીને તે સમસ્ત દુ:ખોના અતકર્તા થઇ જાય છે. ! સૂ. ૨ |
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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