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भगवतीसूत्रे
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लोकः प्रज्ञप्तः, 'ट्ठा विधिन्ने जात्र उपि उडूढं मुइंगागारसंठिए' अधः अधोभागे विस्तीर्णः, यावत् उपरि ऊर्ध्वं मृदङ्गाकार संस्थानः यावत्करणात् --मज्झेसंखित्ते उपिं विसाले अहे पलियंकसंठाणसंठिए, मज्झे वरवरविग्गहिए मध्ये संक्षिप्तः, उपरि विशालः अधः पर्यङ्कसंस्थानसंस्थितः मध्ये वरवज्रविग्रहिकः, 'तंसि च णं सासयंसि लोगंसि देहा वित्थिन्नंसि जाव' उप्पि उड् मुइंगागारसठियसि तस्मिंश्च खलु शाश्वते नित्यस्थायिनि लोके अधो विस्तीर्णे यावत् उपरि उर्ध्वमुखमृदङ्गाकारसंस्थिते 'उण्पण्णनाणदंसणधरे अरहा जिणे दीया जावे और उसके ऊपर फीर एक कलश-घडा रख दिया जावे तो इस दशा में जो आकार बनता है उसका नाम सुप्रतिष्टक है. ऐसा ही आकार लोक का कहा गया है । ट्ठा वित्थिन्ने जाव उपि जड़ मुइंगागारसंठिए' ऐसा आकार कैसा हो जाता है सो उसी बात को सूत्रकारने इस अंश द्वारा व्यक्त किया है इसमें कहा गया है कि ऐसा आकार अधोभाग में विस्तीर्ण हो जाता है और ऊपर में उर्ध्वमुख किये गये मृदंग के आकार जैसा हो जाता है । इस से यह प्रकट किया गया है कि नीचे में जितना विस्तार है उतना विस्तार ऊपर में नहीं है । यहां 'यावत' पद से मज्झे संग्वित्ते, उपि विसाले, अहे पलियकसंठाणसंठिए, मज्झे वरवइरविग्गहिए' इस पाठ का संग्रह हुआ है इन पदों का अर्थ पीछे लिखा जा चुका हैं । 'तंसिच णं सासयंसि लोगंसि, हेट्ठा वित्थिन्नसि जाव उपिं उड्ढ मुइंगागारसंठियसि उप्पण्णनाण- दंसणधरे अर ઊંધું પાડીને ગાઠવવામા આવે અને તેના ઉપર એક કળશ (ઘડા) ગેાઠવવામા આવે તે જવા આકાર ખને છે તેવા આ લેાકના આકાર છે એવા આકારને ‘સુપ્રતિષ્ઠેક સંસ્થાન’ કહે છે તે આકાર કેવા હોય છે, તેનુ વિશેષ સ્પષ્ટીકરણ કરવાને માટે સુત્રકાર કહેછે કે ' हा वित्थिन्ने जात्र उपि उड्ढ़ मुइंगागारसंठिए ' આ લેકના અાભાગ વિસ્તી છે અને ઉર્ધ્વ ભાગ ઉર્ધ્વમુખે રાખેલા મૃદગના જેવા આકારના છે. આ સુત્રાંશ દ્વારા એ વાત પ્રકટ કરવામા આવી છે કે આ લેાક જેટલે નીચે વિસ્તૃત છે मेटलो विस्तृत उपर नथी. अहीं ' जाव यावत् ' यहथी नायेन सूत्रा ४शयो छे– 'मज्झे संखित्ते, उपि विसाले, अहे पलियं कसंठाण सठिए, मज्झे वरवरविग्गहिए' या होना अर्थ पडेसां भावी गया . तसिचणं सासय सि लोगंसि, हेट्टा वित्थिन सि जाव उपि उड़ढं मुइंगागारसंठियंसि उप्पण्ण नाण==
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