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________________ भगवतीमत्रे भदन्त ! देवः समवहताऽसमवहतेन आत्मना विशुद्धलेश्यं देवं देवीम् अन्यतरं' जानाति, पश्यति ? भगवानाह-नायमर्थः समर्थः ६। 'विमुद्धलेस्से ण भंते ! देवे असमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अनयरं जाणइ, पासइ ? णो इणढे समढे'। गौतमः पृच्छति-विशुद्धलेश्यः खलु भदन्त ! देवः असमवह तेन-उपयोगरहितेन आत्मना अविशुद्धलेश्यं देवं देवीम् अन्यतरं जानाति, पश्यति ? भगवानाह-नायमर्थः समर्थः, विशुद्धलेश्यस्य देवस्य सम्यग्दृष्टित्वेऽपि उपयोगरहितत्वेन ज्ञातुमशक्यत्वात ७। 'विमुद्धलेस्सेणं भंते ! असमोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेस्सं देवं देवि अण्णायरं होता है- उसकी आत्मा में मिथ्यात्व से वासित होने के कारण उन्हें जानने का वास्तविक बोध उत्पन्न नहीं हो पाता है। सप्तम विकल्प के विषय में गौतमने प्रभु से ऐसा पूछा है कि 'विसुद्धलेस्सेणं भंते ! देवे असमोहरणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अन्नयरं जाणइ पास' विशुद्धलेश्यावाला देव अनुपयुक्त आत्मा डाग अविशुद्धलेश्यावाले देव को, देवी को या अन्य किसी को जानता और देखता है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं कि-'णो इणढे समढे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसका कारण यह है कि यद्यपि ऐसा देव नियम से सम्यग्दृष्टि होता है फिर भी पदार्थ का जानना तो उपयुक्त अवस्था में ही होता है अनुपयुक्त-उपयोगशुन्य-अवस्था में नहीं। अतः सम्यग्दृष्टि होते हुए भी उपयोगशून्य होने के कारण विशुद्धलेश्यावाला भी देव उन्हें नहीं जानता देखता है। अब अष्टम હવે સાતમાં ભંગ સંબધમાં ગૌતમ સ્વામી આ પ્રમાણે પ્રશ્ન પૂછે છેविसुद्धलेस्सेणं भंते असमोहएणं अप्पाणेण अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अण्णयरं जाणड पासड?' HER | विशुद्ध वेश्यावा हेव अनुपयुत (५यो। २डित) मात्मा દ્વારા અવિશુદ્ધ લેશ્યાવાળા દેવને, દેવીને અથવા એવાં અન્ય કેઈને શું જાણી–દેખી छ ? तेना २ मापता महापा२ प्रभु छ-' णो इणटे समेट' गौतम ! એ વાત પણ સંભવી શકતી નથી તેનું કારણ આ પ્રમાણે છે– જો કે એ દેવ નિયમથી જ સભ્યદૃષ્ટિ હોય છે, તે પણ પદાર્થને જાણવાનુ તે ઉપયુક્ત (ઉપગ ચુકત) અવસ્થામાં જ બની શકે છે, ઉપગ રહિત અવસ્થામાં બની શકતું નથી. તેથી સમ્યગૃદૃષ્ટિ હોવા છતા ઉપગ રહિત હોવાના કારણે વિશુદ્ધલેશ્યાવાળે તે દેવ પણ તેમને જાણી-દેખી શક્તો નથી. હવે સૂત્રકાર આઠમો ભ ગ પ્રકટ કરે છે
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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