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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका. श.६. उ.९ सू.३ देवज्ञानाज्ञानस्वरूपनिरूपणम् १८७ अण्णयरं जाणइ, पासइ ?' गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! अविशुद्धलेश्यः खलु अविशुद्धा लेश्या यस्य स तथाविधो विभङ्गज्ञानी देवः असमबहतेन अनुपयुक्तेन उपयोगरहितेन आत्मना अविशुद्धलेश्य=विभङ्गज्ञानवन्तं देवं, विभङ्गज्ञानवती देवीं वा, अन्यतरम् अन्यं कमपि वा कि जोनाति, पश्यति ? भगवानाह-'णो इणद्वे समडे' हे गौतम ! नायमर्थः समर्थः, अविशुद्धलेश्यो देवः मिथ्यादृष्टित्वात् अनुपयुक्तेन आत्मना अविशुद्धलेश्यं देवादिकं न ज्ञातुमर्हति इत्याशयः ? अथ द्वितीयादिविकल्पान् प्रतिपादयितुमाह-एवं अविमुद्धलेस्सेणं भंते ! देवे असमोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेस्सं देवं देविं अण्णयरं जाणइ, पासइ ? णो हे भदन्त ! जिसदेवकी लेश्या विशुद्ध नहीं है ऐसा विभङ्ग ज्ञानी देव 'असमोहएण अप्पाणेण' उपयोग रहित आत्मा द्वारा अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अण्णयम् , जाणइ पासई' विभङ्गज्ञान वाले देवको, विभंगज्ञानवाली देवीको, अथवा अन्य किसी को भी क्या जानता है ? देखता है उत्तर में भगवान् कहते हैं कि- 'जो इणट्ठ समढे' यह अर्थ समर्थ नहीं है- अर्थात् जिसकी लेश्या विशुद्ध नहीं है ऐसा विभङ्गज्ञानी देव मिथ्या दृष्टि होने के कारण उपयोग शून्ग आत्मा द्वारा विशुद्ध लेश्या रहित ऐसे विभङ्गज्ञानी देव को, विभङ्गज्ञानवाली देवी को तथा इन दोनों में से और भी किसी को जान देख नहीं सकता है। अव द्वितीय आदि विकल्पों को प्रतिपादन करने के लिये सूत्रकार कहते है- इसमें गौतम प्रभु से पूछते हैं कि- 'एवं अविसुद्धलेस्सेणं भंते ! देवे असमोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेस्सं देवं देविं अण्णयरं जाणइ, पासई' हे भदन्त ! देवे' हे महन्त । देवनी सेश्या विशुद्ध नथी मे विज्ञानी हेव 'असमोहएणं अपाणणं' उ421 २डित मात्मा द्वारा 'अविमुद्धलेस्सं देवं देविं अण्णयरं जापार पास?" शुविज्ञानवा हेवने, विज्ञानवाणी हवान, मथवा त બનેમાંથી કેઇ એકને શું જાણે છે અને દેખે છે? તેને ઉત્તર આપતા મહાવીર प्रभु ४९ छ- 'णो इणद्वे समटे हे गौतम ! ये सभी शतुं नथी. रेनी सेश्या વિશુદ્ધ નથી. એવો દેવ મિથ્યાદૃષ્ટિ હેવાને કારણે ઉપગ રહિત આત્મા દ્વારા વિશુદ્ધ લેસ્યાથી રહિત હોય એવા વિભાગજ્ઞાની દેવને, વિભા ગજ્ઞાની દેવીને, અથવા તે બન્નેમાંથી કોઈ પણ એકને જાણી-દેખી શકતો નથી. હવે સૂત્રકાર બીજા વિકલ્પનું પ્રતિપાદન કરે છે– ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને मा प्रभारी प्रश्न पूछे छ- 'एवं अविमुद्धलेस्से णं भंते ! देवे असमोहएणं
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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