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________________ प्रमेयचन्किा टीका श.६ उ.९ सू.२ महर्द्धिकदेवविकुर्वणास्वरूपनिरूपणम् १७३ गौतमः पुनः पृच्छति-'देवेणं भंते ! महिइढिए, जाव-महाणुभागे वाहिरए पोग्गले. अपरियाइत्ता पभू कालगपोग्गलं नीलगपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए ?' हे भदन्त ! देवः खलु महर्द्धिकः, यावत्-महानुभागो वाथान् वहिः क्षेत्रस्थितान् पुद्गलान् अपर्यादाय अगृहीत्वैव कालकपुद्गलंकृष्णवर्णपुद्गलं नीळकपुद्गसतया नीलवर्णपुद्गलत्वेन परिणमयितुं प्रभुः समर्थः ? एवं 'नीलकपोग्गलंवा कालगपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए ? ' नीलकपुद्गलं नीलवर्णपुद्गलंचा कालकपुद्गलतया कृष्णपुद्गलत्वेन परिणमयितुं प्रभुः समर्थः ? भगवानाह-'गोयमा ! णो इणद्वै समट्ठ' हे गौतम ! नायमर्थः समर्थः, देवः खल्ल वाह्यान् पुद्गलान् अन्यत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुर्वति' इस पाठ का संग्रह हुआ है। देवलोक में रहे हुए पुद्गों को लेकर देव विकुर्वणा करता है, यहां के तथा अन्यत्र जगह के पुद्गलों को लेकर विकुर्वणा नहीं करते हैं। अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछ रहे हैं कि-'देवे णं भंते ! महिड्ढिए जाच महाणुभागे घाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू कालग्गपोग्गलं नीलगपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए' हे भदन्त ! महर्द्धिवाला एवं यावत् महाप्रभाववाला देव बाहरीपुद्गलों को नहीं ग्रहण करके ही कालक कृष्णवर्णवाले पुद्गलको नीलवर्णवाले पुद्गल के रूप में परिणमाने के लिये क्या शक्तिशाली हो सकता है ? एवं 'नीलपोग्गलं वा कालगपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए' इसी तरह क्या वह देव नीलवर्णवाले पुद्गलको कृष्णवर्णवाले पुद्गल के रूपमें परिणमासकनेके लिये समर्थ हो सकता है ? इसके उत्तरमें प्रभु गौतमसे कहते हैं कि 'गोयमा' हे गौतम ! णो इणढे समट्टे' यह अर्थ समथ नहीं है अर्थात विकति तना भावार्थ - २५ पुनसान यह दीन व विशु ४२ छ, આ ક્ષેત્રના કે અન્યત્ર ક્ષેત્રનાં પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરીને વિકૃર્વણુ કરતા નથી . गौतम स्वामीन। प्रश्न- देवेणं भंते! महिड्रढिए जाव महाणुभागे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू कालगपोग्गळं नीलगपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए । હે ભદન્ત! મહદ્ધિક, મહાપ્રભાવશાળી આદિ ગુણવાળે દેવ શું બહારનાં પુદગલેને ગ્રહણ કર્યા વિના કૃષ્ણવર્ણવાળા પુદ્ગલને નીલવર્ણવાળા પુદ્ગલરૂપે પરિણુમાવી શકવાને समय डाय छे ४२.? मने नील पोग्गलं वा कालगपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए' એજ રીતે તે દેવ નીલવર્ણવાળા યુગલને કૃષ્ણવર્ણવાળા પુદગલરૂપે પરિણુમાવી शपान शुसमर्थ होय छे. ? तेनSt२ भापता महावीर प्रभु ४ छ'गोयमा!' હે ગૌતમ! એવું સંભવી શકતું નથી. દેવ બાહ્ય પુદ્ગલેને ગ્રહણ કર્યા વિના કૃષ્ણપુદ્ગલને
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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