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________________ प्रमेयचन्द्रिकाटीका श.६ उ.८ म्. ३ लवणसमुद्रस्वरूपनिरूपणम् १५१ पवित्थरमाणा, बहुउप्पल-पउम-कुकुय- नलिण - सुभग - सोगंधियपुंडरीय महापुंडरीय-सयपत्त-सहस्सपत्त-केसर-फुल्लोवइया उब्भासमाणवीइया' इतिसंग्राह्यम् , प्रविस्तरन्तः प्रविस्तरन्तः, समतलतया विस्तारं प्राप्नुवन्तः बहूत्पल पद्म - कुमुद - नलिन -सुभग- सौगन्धिक- पुण्डरीक - महापुण्डरीक - शतपत्र- सहस्रपत्राणां केसरैः फुल्लैश्चोपचिताः, अवभासमानवीचयःसन्ति । 'अवभासमानवीचयः' इति शोभमानवीचयः, पातालकलशानां लवणसमुद्रादन्यत्राऽभावेऽपि सामान्यवातस्य सर्वत्र सद्भावात् शोभनतरङ्गवन्त इतिभावः। समुद्र स्वयंभूरमणसमुद्र तक है । अर्थात् द्वीप से दूना प्रमाण समुद्रका और समुद्र से दूना प्रमाण द्वीपका इस तरह से दूने दूने प्रमाणवाले और गोलचूडीके आकारवाले असंख्यात द्वीप और समुद्र इस तिर्यग्लोक में हैं । अन्तमें स्वयंभूरमण समुद्र है । द्वीपके बाद उसे घेरे समुद्र और समुद्रके बाद द्वीप इसतरहसे एक दूसरेको घेरे हुए ये द्वीप समुद्रस्थित हैं । यहाँ यावत्पदसे 'पवित्थरमाणा पवित्थरमाणा बहु उप्पल-पउम-कुमुघ--नलिण सुभग-सोगंधिय-पुंडरीय-महा पुंडरीय सयपत्त-सहस्सपत्त केसर-फुल्लोवइया उन्भासमाणवीहया' इस पाठका संग्रह हुआ है । ये समुद्र आगे २ अधिकर विस्तारवाले हैं सथा अनेक उत्पलों, पद्मों, कुमुदों, नलिनों, सुन्दर और सुगंधित पुण्डरीकों (कमलों) महापुण्डरीकों, शतपत्रों और सहस्रपत्रोंकी केशरों किकिंजल्कों से तथा पुष्पोंसे युक्त है। इनमें सदासुन्दर२ तरङ्ग उठती रहती है। यद्यपि पाताल कलशोंका सद्भाव लवण समुद्र से अन्यत्र समुद्रों में એ રીતે બમણું બમણા પ્રમાણવાળા અને ગોળચૂડીના જેવા આકારવાળા અસંખ્યાત દ્વિપ અને સમુદ્રો આ તિર્યકમાં છે, અને અન્તિમ ભાગમાં સ્વયંભૂરમણ સમુદ્ર છે દીપ પછી તેને ઘેરીને રહેલે સમુદ્ર અને સમુદ્ર પછી દીપ, આ રીતે એક બીજાને धेशन (वीटान) ते दीपसमुद्रो २३ता छ. ही "जाव ( यावत )" ५४थी २५ प्रभारी सूत्रा: अड ४२॥ये। छ- “पवित्थरमाणा बहु उप्पल-पउम-कुमुय, नलिण, सुभग, सोगंधिय, पुंडरिय, महापुंडरिय, सयपत्त, सहस्सपत्त, केसर फुल्लोवइया उन्भासमाणवीइया" ते समुद्रो मागने मागत अधिः भवित्र વિસ્તારવાળા છે, તથા અનેક કમળો, પવો, કુમુદ, નલિન, સુંદર અને સુગ ધયુકત પુડરીકે (કમળો), મહાપુંડરીકે, શતપત્ર અને સહસ્ત્રપત્રાની કેશરોની કીં જકેથી તથા પુષ્પોથી યુકત છે. તે સમુદ્રોમાં સદા સુંદર તરંગો (લહેરે) ઉદ્દભવતી રહે છે. છે કે પાતાળ કળશને સદભાવ લવણસમુદ્ર સિવાયના સમુદ્રોમાં નથી, પણ સામાન
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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