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भगवतीस्त्रे तथा वेदनीयं कर्म जघन्येन द्वौ समयौ, तथा च केवलयोगप्रत्ययबन्धापेक्षया वेदनीयं कर्म द्विसमयस्थितिकं भवति, तत्र एकस्मिन् समये वध्यते, द्वितीये तु वेद्यते यत्तु " वेयणियस्त जहण्णा वारस, नाम-गोयाण अट्ठ मुहुत्ता" वेदनीयस्य जघन्या द्वादश, नाम-गोत्रयोः अष्टमुहूर्ता इत्युक्तम् तत् सकपायस्थिति बन्धमाश्रित्य वेदितव्यमिति न तद्विरोधः उत्कण यथा ज्ञानावरणीयं कर्म तथैव वेदनीयमपि कर्म वोध्यम् , तथा च वेदनीयस्यापिकर्मणः उत्कृष्टतः स्थितिकाल: त्रिसहस्रवपन्युनस्त्रिशत्सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणः । ' मोहणिज्जं जहाणेग अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सत्तरिसागरोत्रमकोडामोडीओ । मोहनीय कर्म समय की है और उत्कृष्ट स्थिति ज्ञानावरणीय के समान तीस ३० कोडामोडी सागरोपम की है । यहां जो वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति दो समय की कही गई है वह केवल योग के निमित्त से होने वाले बंध की अपेक्षा ले कही गई है-ऐसी स्थिति में वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति दो समय की होती है एक समय में वह बंधता है, और द्वितीय समय में वह वेदा जाना है जो (वेणियस्स जहण्णा वारस, नाम गोयाण अg मुहुत्ता) वेदनीय कर्म के विषय में ऐसा कहा गया है कि वेदनीयकर्म की जघन्य स्थिति १२ मुहर्त की होती है सो यह कथन कपाय सहित जीवों की अपेक्षा से ही जानना चाहिये-क्यों कि कषाययुक्त जीवों के जो वेदनीय कर्म का जघन्य स्थिति बंध होता है वह १२ मुहूर्त का होता है उत्कृष्ट स्थिति काल वेदनीय कर्म का तीन हजार वर्षे कम तीस सागरोपम कोडाकोडी प्रमाण का है (मोहणिज्जं जहण्णेणं
ઓછામાં ઓછી સ્થિતિ બે સમયની અને વધારેમાં વધારે સ્થિતિ જ્ઞાનાવરણીય કર્મના જેટલી જ (ત્રીસ કેડીકેડી સાગરોપમની) છે. અહીં જે વેદનીય કર્મની જઘન્ય (ઓછામાં ઓછી) સ્થિતિ બે સમયની કહી છે તે માત્ર
ગને કારણે થનારા બંધને અનુલક્ષીને કહી છે–એટલે કે એવી પરિસ્થિતિમાં વેદનીય કમની જઘન્ય સ્થિતિ બે સમયની હોય છે–એક સમયમાં તે બંધાય छ भने मीर समये तनु वेहन थाय छे. (वेयणियस्स जहण्णा वारस, नाम गोयाण अडगुहुत्ता) मा ४थन प्रभारी वहनीय भनी २ ॥२ भुक्तानी धन्य સ્થિતિ કહી છે તે કષાય યુક્ત જીવોની અપેક્ષાએ જ સમજવી, કારણ કે કષાયયુક્ત જીના વેદનીય કર્મને જે જઘન્ય રિથતિ બંધ થાય છે, તે બાર - મુહૂર્તને હોય છે, વેદનીય કર્મને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિકાળ ત્રીસ સાગરોપમ કેડા डी ४२०i वर्ष माछ। डाय छे. ( मोहणिज्ज जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं,