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मैचद्रका टीका श० ६ ० ३ सू० ३ कर्म पुनलोपचयस्वरूपम
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साइए सपज्जबसिए' हे गौतम ! वस्त्रस्य खलु पुद्गलोपचयः सादिकः सपर्यत्र सित: ' णो साइए अपज्जवसिए ' नो सादिकः अपर्यवसितः ' जो अगाइए सपज्जवसिए 'नो वा अनादिकः सपर्यवसितः, 'णो अurre अपज्जबसिए ' नापि अनादिकः पर्यवसितो वा वस्त्रस्य पुद्गलोपचयो भवति, गौतमः पृच्छति - जहा णं भंते ! वत्थस्स पोग्गलोवचए साइए सपज्जबसिए ' हे भदन्त ! यथा खलु वस्त्रस्य पुद्गलोपचयः सादिकः - सपर्यवसितो भवति, ' णो साइए गौतम ! ' वत्थस्त णं पोग्गलोबचए साइए सपज्जवलिए) वत्र का जो पुलेोपचय है वह सादि सान्त है 'जो साइए अपज्जबसिए' सादि अनन्त नहीं है ' णो अणाइए सपज्जवसिए' अनादि सान्त नहीं है ( णो अणाइए अपज्जवसिए) और अनादि अनन्त भी नहीं है । कहने का भाव यह है कि वस्त्र में जो पुद्गलोपचय है वह प्रारंभ होने के कारण तो सादि है और भविष्य में वह नष्ट हो जाने वाला है इसलिये सान्त है सादि पर्यवलित वह इसलिये नहीं है कि प्रारंभ होने पर भी वह शाश्वत - ध्रुव-रूप में नहीं रहा है, अनादि सपर्यवसित उसे इस लिये नहीं कहा गया है कि वस्त्र में उस पुहुलोपचय की शुरुआत हुई है अनादि अपर्यवसित वह इसलिये अमान्य हुआ है कि वह प्रारंभसहित है और अन्तसहित है । अब गौतम प्रभु से पुनः पूछते हैं कि ( जहा णं भंते ! वत्थस्स पोग्गलोक्चए साइए सपज्जबसिए) हे भदन्त जिल प्रकार से आपने चस्त्र के पुद्गलोपचय को सादि और सान्त कहा है (णो
( गोयमा ! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए साइए सपज्जवसिए) हे गौतम ! वस्त्रनां युद्धसानो उपयय ( वृद्धि ) साहि सान्त होय छे. ( णो साइए अपज्जवसिए ) ते साही अनंत होतो नथी. ( जो अणाइए सपज्जवसिए ) ते साहि अनंत होतो नथी, ( जो अणाइए सपज्जवखिए ) ते मनाहि सान्त होता नथी, ( णो अणाइए अपज्जवलिए) ते मनाहि अनंत પણ હાતા નથી. આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે-વસને પુદ્ગલેાપચય પ્રારલથી યુક્ત હાય છે, તેથી તેને સાદિ કહ્યો છે. ભવિષ્યમાં તેના નાશ થતા હાય છે, તેથી તેને સાન્ત કહ્યો છે. તેના પ્રારંભ થયા પછી તે શાશ્વત (નિત્ય) રૂપે રહેતા નથી તેથી તેને સાદિ અનંત કહ્યો નથી. તે પુદ્ગલેાપચયને અનાદિ સાન્ત એ કારણે કહ્યો નથી કે વજ્રમાં તે પુદ્દગલાપચયના પ્રારભ થયેલેા છે. તેને અનાદિ અનંત કહ્યો નથી કારણ કે તે પ્રાર’ભ સહિત અને અન્ત સહિત છે.
गौतम स्वाभी हुवे जीले अश्न पूछे छे - ( जहा णं भंते ! वत्थस्स पोलो ये साइए सज्ज सिए ) हे लहन्त ! प्रेम वनां युगलानो उपयय साहि