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________________ अवन्द्रिका ० ०६ ४० सं० १ वेदनानिर्जरास्वरूपनिरूपणम् ७६६ टीका-' से पूर्ण भंते ! जे महावेयणे से महानिज्जरे, जे महानिज्जरे से महावेयणे ' गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! तद् नूनं निश्चयेन किम् यो महावेदनः महती वेदना दुःखं यस्य सः उपसर्गादिसमुत्पन्नविशिष्टदुःखवान् भवति सः महानिर्जरः महतीनिर्जरा यस्य एवंविधविशिष्टकर्मक्षयवान् भवति । अनयोश्च तादृशवेदननिर्जरयोः परस्परमविनाभावसम्बन्धद्योतनाय-माह-यो महानिर्जरः विशिष्टकमक्षयवान् स किम् महावेदनो भवति ? इति प्रथमः प्रश्नः अथ द्वितीयं प्रश्नमाह-" महावेयणस्स य, अप्पवेयणस्स य से सेए जे पसत्यनिराए ?" कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि जो महावेदनावाला होता है वह महानिर्जरावाला होता है यावत् वह प्रशस्त निर्जरावाला होता है। टीकार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा महावेदना और महानिर्जरा का स्वरूप फल की अपेक्षा से निरूपण किया है-इसमें गौतम प्रभु से ऐसा पूछ रहे हैं कि-(से गृणं भंते ! जे महावेयणे से महानिज्जरे जे: महानिजरे से महावेयणे) हे भदन्त ! जो महावेदना वाला होता है वह क्या महानिर्जरावाला होता है ? तात्पर्य कहनेका यह है कि जो उपसर्ग आदिसे उद्भूत विशिष्ट दुःखोंवाला होता है-यह क्या विशिष्ट कर्मक्षय रूप निर्जरावाला होता है ? इस प्रकारकी इन दोनों वेदना और निर्जरा में क्या परस्पर अविनाभाव संबंध है ? इस बातको प्रकट करने के लिये पूछा गया है कि "जो महानिर्जरावाला होता है वह महावेदनावाला होता है" इस प्रकार यह प्रथम प्रश्न है । द्वितीय प्रश्न इस प्रकार से है-(महा હે ગૌતમ! તે કારણે મેં એવું કહ્યું છે કે જે મહાદનાવાળા હોય છે તે મહાનિર્જરાવાળો હોય છે, (યાવત) તે પ્રશસ્ત નિર્જરાવાળો હોય છે. ટીકાર્થસૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા મહાવેદના અને મહાનિર્જરાનું સ્વરૂપ ફળની અપેક્ષાએ નિરૂપણ કર્યું છે – गौतम स्वामी महावीर प्रभुने सेवा प्रश्न पूछे छ। (से गुणं भंते ! जे महावेयणे से महानिज्जरे, जे महानिज्जरे से महावेयणे ) महत। २ જીવ મહાદનાવાળો હોય છે, તે શું મહાનિર્જરાવાળો હોય છે? પ્રશ્નને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે– જે જીવ ઉપસર્ગ આદિથી જનિત વિશિષ્ટ દુખેવાળો હોય તે શું વિશિષ્ટ કર્મક્ષયરૂપ નિર્જરાવાળે હોય છે? આ પ્રકારની વેદના અને નિજ રા વચ્ચે શું અવિનાભાવ સંબંધ છે? એ વાત જાણવાને માટે જ આ પ્રશ્ન પૂછવામાં આવ્યું છે કે “જે મહાનિર્જરાવાળા -- શું મહાવેદનાવાળે હેય છે?” બીજો પ્રશ્ન આ પ્રમાણે પૂછ ''
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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