________________
अमेयचन्द्रिका टी० श०५७०६०९ मृपावाविकर्मबंधस्वरूपनिरूपणम् ४४१ कियन्ते, यौव अभिसमागच्छति, तत्रैव प्रतिसंवेदयति, ततः स पश्चावेदयति तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त ! इति ॥ सू० ९ ॥ ': टीका- पूर्व परानुग्रहस्य फलं प्रतिपादितम् , अथ परपीडनस्य- फलं प्रति पादयति-जेणं भनें ! इत्यादि । 'जेणं भंते ! परं अलिएण, असब्भूएण, अभक्खाणे] अब्भकखाइ, गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! यः खलु पुरुषः परम् अन्य जनम् अलीकेन सत्यापलापेन पालितब्रह्मचर्यादि श्रमवि-- पयेऽपि 'नानेन ब्रह्मचर्यादिकमनुपालितम् ! इत्यादि-रूपेणेत्यर्थः असद्भतेन असत्योद्भावनरूपेणं 'अतस्करेऽपि तस्करोऽयम्' इत्यादिना, अभ्याख्या'नेन-आभिमुख्येनं आख्यानं दोषाविष्करणम् अभ्याख्यानं दोषारोपणं, तेन, उसी प्रकार के कर्मों का बंध होता है-वह जहां जाता है वहां पर उनके फलों को भोगता है, हे भदन्त ! जैसा आपने कहा है. वह ऐसा ही है हे भदन्त । वह ऐसा ही इस प्रकार कहकर वे गौतम ! अपने स्थानपर विराजमान हो गये।
"ट्रीकार्थ- पूर्व सूत्र में दूसरे के साथ किये गये उपकार का फल सत्रकार ने प्रकट किया है अब वे इस सूत्रद्वारा परपीड़ा के फुल को प्रकट कर रहे हैं इसमें-गौतम् प्रभु से पूछ रहे हैं कि-(जे णू भंते !) हे भदन्त जो मनुष्य (पर) किसी दूसरे मनुष्य को (अलिएणं) अलीक पंचनद्वारा-ब्रह्मचर्य का पलन करने पर भी (इस ने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन नहीं किया) इत्यादि-इस प्रकार के सत्यको अपलाप करने वाले झं तथा असद्भुत अविद्यमान-अचौर को चौर कहना इस प्रकार के नहीं हुए को उद्भावन करने रूप असत्य-अभ्याख्यान अर्थात् अविद्यमान दोषों को समक्ष प्रकट करने रूप आरोप द्वारा (अभक्खाइ) दूषित करता है, अर्थातू जो व्यक्ति सत्य के अपलाप-छिपाकर अविद्यमान वस्तु का उद्भावन करना अर्थात् सामने ही दुष्ट अभिप्राय से युक्त होकर झूठे दोषों को प्रकट करना इस प्रकार का अभ्याख्यान-आरोप
આપે જે પ્રતિપાદન કર્યું તે બરાબર છે. આપની વાત યથાર્થ છે. એ “પ્રમાણે કહીને, વંદણુનમસ્કાર કરીને ગૌતમ સ્વામી તેમની જગ્યાએ બેસી ગયા.
ટીકાર્થ–પૂર્વ સૂત્રમાં અન્ય વ્યક્તિ ઉપર કરવામાં આવેલા ઉપકારનું ફળ બતાવવામાં આવ્યું છેહવે આ સૂત્રદ્વાર સૂત્રકાર અન્યને કરાતા અભ્યાખ્યાન અળના ફળનું પ્રતિપાદન કરે છે. ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને એ પ્રશ્ન पूछ छ (जे भंते ) महत! मनुष्य (पर') भी व्यक्तिन (अलिएणं) असत्य पर्थन द्वारा " असन्भूएणं अव्भक्खाणेणं अव्भक्खाइ " तथा
भ ५६