SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवतीस्त्र यावत्करणात् 'पादं वा, वाहुं वा ऊरुंचा, ' इति संग्राहयम् , भगवान् आह गोयमा ! णो इणहे समहे' हे गौतम ! नायमर्थः समर्थः नैतत्संभवति । गौतम, स्तत्र कारणं पृच्छति-' से केणडेणं भंते ! जाव-ओगाहित्ता णो चिहित्तए ? हे भदन्त ! अथ तत् केनाथन यावत्-अवगाहय न स्थातुम् ? यावत्करणात्-केवली खलु वर्तमानसमये येषु आकाशमदेशेषु हस्तं वा, पादं वा वाहुं वा ऊरुवा, अवगाहय तिष्ठति, प्रभुः खलु केवली एष्यत्कालेऽपि तेष्वेव आकाशमदेशेषु हस्तादिकम् इति संग्राहयम् । भगवान् तत्र कारणं प्रतिपादयति 'गोयमा ! केवलिस्स वीरिय सजोग सद्दध्वयाए चलाई उवकरणाई भवंति' हे गौतम ! केवलिनः केवलज्ञानिनः खलु वीर्यसयोगसव्यतया, वीर्यान्तरायक्षयजन्या शक्तिः वीर्यम् , तत्मधानं सयोग -मनःप्रभृतिव्यापारयुक्तं यत् सद्-विद्यमान द्रव्यं जीवरूपं तस्य भावस्तत्ता केलिये समर्थ हैं ? यहां यावत् शब्द से (पायं वा बाहुं वा ऊरुं वा) इस पाठ को संग्रह हुआ है। इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोयमा) हे गौतम । (णो इणढे समढे) यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् यह बात नहीं बन सकती है। (से केणटेणं भंते ! जाव ओगाहित्ता णो चिटित्तए) गौतमस्वामी प्रभु से पूछते हैं कि हे भदन्त ! यह बात क्यों नहीं बनसकती है ? तो इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोयमा!) हे गौतम! (केवलिस्स णं वीरिय सजीग-सहन्धयाए चलाई उवगरणाइं अवंति) केवली वीर्यान्तराय कर्म के सर्वथा क्षय से उत्पन्न हुई शक्तिरूप वीर्य की प्रधानता वाले मानस आदि के व्यापार से सत् जीव द्रव्यरूप होते हैं। अतः वे वीर्यसयोग सद्रव्य यहां प्रकट किये गये हैं। वीर्य के सद्भाव होने पर भी यदि व्यापाररूप योग आत्मा में न हो तो जीव का चलन महावीर प्रभुना उत्तर-(गोयमा ! णा इणठे समटूठे) 3 गौतम को બની શકતું નથી. ते २५ तवाने भाटे गौतम स्वाभीने पूछे छ-(से केणटूठेण भते ! जाव ओगाहित्ता णो चिहित्तए) महन्त ! ४२) सतुं मनी शतुं नथा! . उत्तर-(गोयमा) 8 गौतम! (केवलिस्म णं वीरिय सजोग- सहव्वयाए चलाई उक्गरणाई भवंति) del, वीर्यान्तराय भनी सर्वथा क्षय थवाथी ઉત્પન્ન થયેલ શક્તિરૂપ વીર્યની પ્રધાનતાવાળા, માનસ આદિની પ્રવૃત્તિથી સત્ જીવદ્રવ્ય રૂપ હોય છે. તેથી તેમને “વીર્યસગ સદ્રવ્ય” તરીકે ઓળખાવ્યા છે. વીર્યને સભાવ હોવા છતાં પણ જે વ્યાપાર ( પ્રવૃત્તિ) રૂપ બને
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy