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प्रमेrचन्द्रिका टोका २०५ ३०४ सु०६ नोसंयत्तस्वरूपनिरूपणम्
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हे भदन्त ! इति आमन्त्र्य भगवान गौतमः श्रमणं भगवन्त महावीरं वन्दते, नमस्यति, यावत्-एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण अगदीत् - ' देवाणं भंते ! संजयाति वृत्तव्यं सिया ? ' हे भदन्त ! देवाः खलु ' संयताः ' इति वक्तव्यं स्यात् ? संयंत शब्देन देवा व्यपदेष्टुं शक्यन्ते किम् ? इति प्रश्नाशयः, भगवान् आह - 'गोयमा ! णो इट्ठे समट्ठे, अब्भकखाणमेयं देवाणं' हे गौतम । नायमर्थः समर्थः नैतत्स
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टीकार्थ- देवों को अधिकार होने से सूत्रकार उनकी विशेषवक्तव्यता का निरूपण इस सूत्र द्वारा कर रहे हैं - इसमें ' भंते! त्ति भगवं गोमे भदन्त ! इस प्रकार से प्रभु को संबोधित करके भगवान् गौतम ( समणं भगवं महावीरं वंदइ ) श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना करते हैं और 'नमंसइ' उन्हें पंचांग नमन पूर्वक नमस्कार करते हैं । 'जाव एवं वयासी' फिर वे यावत् इस प्रकार से प्रभु से पूछते हैं । 'देवाणं भंते । संजया इ वत्तव सिया' हे भदन्त । देवों को संयत शब्द द्वारा संबोधित किया जा सकता है क्या ? अर्थात् देव संयन ' हैं । ऐसा कहा जा सकता है क्या ? इसके उत्तर में प्रभु गौतमसे कहता हैं कि- 'गोयमा ! हे गौतम! 'णो इणट्टे' यह बात उनमें संभवती नहीं है - संयम पालन करने वाले को ही संयत शब्द से कहा जाता है देव संयम का आराधन नहीं कर सकते हैं क्यों कि उनमें चतुर्थ गुण स्थान से आगे बढने की योग्यता नहीं होती है । ' अन्भक्खाणमेयं ' देवों में संयत शब्द का प्रयोग करना - अर्थात् ऐसा कहना कि देव
ટીકા દેવાના અધિકાર ચાલતા હાવાથી, સૂત્રકાર આ સૂત્રમાં દેવાનું વિશેષ નિરૂપણ કરવા માટે નીચેના પ્રશ્નોત્તર પ્રકટ કરે છે—
"भंते ! न्ति भगवं गोयमे " हे लहन्त । ” मे भानपूर समोधन श्रीने लगवान गौतभ" "समण' भगव' महावीर व दइ नमसइ" श्रभाशु भगवान भडावीरने वहा रे भने यो नभाचीने प्रणाम उरे छे. " जावं एवं वयासी " त्यार माह तेथेो महावीर प्रभुने नीचे प्रमाणु प्रश्नो पूछे छे — प्रश्न- " देवाण' भते ! संजयाइ वत्तव्व सिया १ " हे लहन्त ! हेवे સયત હાય છે, એમ કહી શકાય ખરૂં
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उत्तर " गोयमा ! " हे गौतम! " णा इण्डे सम દેવામાં આ વાત સ‘ભવી શકતી નથી. સયમનું પાલન કરનારને જ સયત કહેવાય છે. દેવા સયનનું પાલન કરી શકતા નથી કારણ કે ચેાથા ગુણસ્થાનથી આગળ वधवानी योग्यता ? तेभनाभां होती नथी. ( अव्भक्खाणमेयं) हेवाने संयंत
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