________________
२६४
भगनवीस असंयताः इति वक्तव्यं स्यात्? गौतम ! नायमर्थः समर्थः, निष्ठुरवचनमेतत् । देवाः खल भदन्त ! संयताऽसंयता इति वक्तव्यं स्यात् ? गौतम । नायमर्थः, समर्थः असद भूतमेतद् देवानाम्, तत् किंपुनः खलु भदन्त ! देवा इति वक्तव्यं स्यात् ? गौतम! देवा नोसंयता इति वक्तव्यं स्यात् ।। सु० ६ ॥ _____टीका-देवाधिकारात् तेषां विशेषरक्तव्यतामाह-भंते । त्ति' इत्यादि। 'भंते ! ति भगवं गोयमे श्रमण भगवं महावीरं वंदइ, नमंसह, जाव एवंचनासी-' अर्थ समर्थ नहीं है। (अभक्खागमेयं देवाणं ) देवों को संयत कहना यह उनके ऊपर एक प्रकार से आक्षेप का आरोप जैसा है। (देवाणं भंते । असंजया ति वत्तवं सिया) हे भदन्त ! देव असंयत है क्या इस प्रकार से कहा जा सकता है ? (गोयमा ! णो इणहे समटे) हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । (निठुरवयणमेयं ) क्यों कि देव असंयत है ऐसा वचन निष्ठुर वचन है अर्थात् कठोर वचन है। 'देवाणं भंते ! संजयासं जया त्ति वत्तव्यं सिया ? 'हे भदन्त ! देव संयता संयत होते हैं। क्या ऐसा कहा जा सकता है ? (गोयमा ! णो इण? सम?- असम्भूयमेयं देवाणं) हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। है । कारण यह असदुद्भूत वचन है । ( से किं खाई गं भते । देवा इति वत्तव्य सिया!) तो फिर हे भदन्त । देवों में किस शब्द से व्यवहार होना चाहिये ? (गोयमा ! देवाणं नो संजया इ वत्तवं सिया) हे गौतम ! देव 'नो संयत ' इस शब्द से व्यवहार के योग्य हैं। समटे) गौतम ! 2. प्रभारी ४ी शाय नही (अब्भक्खाणमेय देवाण) દેને સંયત કહેવા એ તે તેમના પર એક પ્રકારને આક્ષેપ કર્યો કહેવાય. • (देवाण भंते ! असंजया ति वत्तव्य सिया ! ) B महन्त! । मसयत डाय छ, मेम ४ी शाय भ३ १ गोयमा ! णो इणढे समहे) गीतम! म ४ ते ५ योग्य नथी ( निठुरवयणमेय) हेवाने मसयत ४ा मेतो मे प्रानुनि २ वयन गाय, ( देवाण' भंते ! संजया संजया ति वत्तव्य सिया?) 8 महन्त ! हे सयतासयत डाय छ, सम. ही शाय ? (गोयमा ! णो इण? समी) 3 गौतम! सभ ४ ५ योग्य नथी, (असम्भूयमेयं देवाण) १२ , हेवाने भाटत असत्य ४६५ना गवाय. (से कि खाई ण भंते। देवा इतिवत्तव्य सिया?) महन्त हेवान भाटे या विशेषyनो प्रयास ४श्व मे ? ( गोयमो! देवाण नो संजया ६ वत्तव्व सिया) 3 गौतम ! हेवाने 'ना सयत' वा नये.