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भगवती अभ्यन्तरपुष्करार्धस्यापि भणितव्या, नवरम्-अभिलापो यावत् ज्ञातव्यः यावत् - यदा खलु अभ्यन्तरपुष्करार्धे मन्दराणां पौरस्त्य - पश्चिमे नैवास्ति अवसर्पिणी नैवास्ति उत्सर्पिणी, अवस्थितः तत्र कालः प्रज्ञप्तः । तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति ।। सू० ४ ॥
॥ पञ्चमशतके प्रथम उद्देशः समाप्तः ॥ ५-१ ॥
टीका -- शास्त्रकारो लवणादिसमुद्रवक्तव्यतामाह - ' लवणं भंते ! इत्यादि । गौतमः पृच्छति - हे भदन्त ! लवणे खलु ' समुद्दे ' समुद्रे ' सूरिया' सूर्यो तरह से आभ्यन्तरपुष्करार्ध की भी वक्तव्यता कर लेनी चाहिये । ( नवरं अभिलावो भाणियव्वो, जाव तथा णं अभितरपुत्रखरदे मंदराणं पुरत्थमपच्चत्त्रिमेणं नेवत्थि ओसपिणी, नेवस्थि उस्सप्पिणी, अवट्टिए णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो ) विशेषता यह है कि धा ती खंड के स्थान में आभ्यन्तर पुष्करोध पद का प्रयोग अभिलाप में कहना चाहिये । यावत् जब आभ्यन्तरपुष्करार्ध में मन्दरपर्वतों के पूपश्चिमदिग्भाग में अवसर्पिणी काल होता नहीं है, उत्सर्पिणीकाल होता नहीं है इसलिये वहां काल अवस्थित कहा गया है । ( सेवं भंते ! सेवं भंते । त्ति ) हे भदन्त ! जैसा आप देवानुप्रिय ने यह प्रतिपादित किया है वह सर्वथा सत्य ही है, हे भदन्त ! वह सर्वथा सत्य ही है । इस प्रकार कहकर गौतम अपने स्थान पर बैठ गये ||
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टीकार्थ - शास्त्रकार ने इस सूत्र द्वारा लवणसमुद्र आदि की वक्तव्यता का प्रतिपादन किया है गौतम प्रभु से पूछते हैं कि हे भदन्त ! छे-भेट अभाणे आल्यन्तर पुष्ठुरार्धनी वक्तव्यता पशु हेवी लेणे. (नवर अभावो भाणियन्त्र तयाण अभितरपुक्खरद्धे मंदराणं पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं नेवस्थि ओसप्पिणी नेवत्थि उस्सप्पिणी, अवट्ठिएणं तत्यकाले पण्णत्ते समणाउसो ) विशेषता છે કે ધાતકી ખંડને બદલે અભ્યન્તર પુષ્કરા પદ્મના પ્રયાગ કરીને આલાપક કહેવા જોઈએ. ( અભ્યન્ત પુષ્કરામાં મન્દર પતાના પૂપશ્ચિમ દિગ્બાગમાં અવસર્પિણી અને ઉત્સર્પિણીકાળ હાતા નથી, તેથી ત્યાં કાળ અવસ્થિત કહ્યો छे, ) त्यां सुधीनुं समस्त प्रथन श्रनुवु (सेवं भंते ! सेव भरते ! ति ) હે ભદન્ત ! આપ દેવાનુપ્રિયે આ વિષયમાં જે પ્રતિપ ન કર્યું તે યથાર્થ છે. આપની વાત સ`થા સત્ય છે, ) આમ કહીને ગૌતમ સ્વામી તેમને સ્થાને બેસી ગયા.
ટીકા –ા સૂત્રદ્વારા શાસ્ત્રકારે લવણુસમુદ્ર આદિની વક્તવ્યતાનું પ્રતિ थाहन ड्यु" छे. गौतम स्वामी महावीर अलुने पूछे छे ( लक्षणे समुद्दे )