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प्रमेयचन्द्रिका टीका श.३ उ.६सु.२ अमायिनोऽनगारस्य विकुर्वणानिरूपणम् ७४१ एवम् उच्यते-तथाभावं जानाति, पश्यति, नो अन्यथाभावं जानाति, पश्यति । अनगारः खलु भदन्त ! भावितात्मा वाह्यान् पुद्गलान् अपर्यादाय प्रभुः एकं महत् ग्रामरूपं वा, यावत्-सन्निवेशरूपं वा विकुर्वितुम् ? नायमर्थः समर्थः, एवं द्वितीयोऽपि आलापकः, नवरम् - बाह्यान् पुद्गलान् पर्यादाय यश है, यल है, वीर्य है और पुरुपकार पराक्रम है। (से) इस कारण (से) उसके (दसणे) दर्शन-देखने में (अविवच्चासे) अविपर्यास विपरीतपना नहीं (भवह) होता है। (से तेणठेणं गोयमा ! एवंबुच्चइ) अतः हे गौतम । इसी निमित्त से मैंने ऐसा कहा है कि वह (नहाभाव जाणइ पासइ) तथाभव से जानता देखता है । (णो अन्नहा. मावं जाणइ पासइ) अन्यथाभावसे नहीं जानता देखता है । (अण. गारे णं भंते ! भावियप्पा याहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगं महं गामस्वं वा नगररूवं वा जाव संनिवेसरुवं विउवित्तए) हे भदन्त ! भावितात्मा अनगार बाह्यपुद्गलोको ग्रहण किये विना क्या एक विशाल ग्रामस्पकी, नगररूपकी यावत् संनिवेशरूपकी विकुर्वणा करनेके लिये समर्थ है ? (ो इणढे सम४) हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। (एवं वितीओ वि आलावगो) इसी तरह से द्वितीय आलापक भी जानना चाहिये । (नवर) परन्तु इस आलापक में यह विशेपता है कि-(बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू) कि वह भने पुरु५४२ पराभ छे. (से) ते २२ ( से दंसणे ) तेन निभा (हमपामा) (अविवच्चासे भवइ) अविपर्यास भाप डाय छ-विपरीत माप खाता नथी. (से तेणढणं गोयमा! एवं वुचइ) गौतम ! ते ४२ में मेधुं धुं छे' (तहाभावं जाणइ पासइ) ते तेने यथार्थ ३थे छ भने हेथे छ, (णो अन्नहाभावं जाणइ पासइ) अयथार्थ ३ तातो भने मत नथी. (अणगारेणं भंते ! भावियप्पा वाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगं महं गामस्व वा नगर रूवं वा जाव संनिवेसरूव वा विउविनए) महन्त ! लावितामा मागार ખાદ્યપુદ્ગલેને ગ્રહણ કર્યા વિના એક વિશાળ ગામરૂપની, નગરરૂપની, અથવા સંનિવેશ पर्य-तना ३५नी विभु'ए। ४२वाने शु समर्थ छ? (णो इणदे समझे) 3 गौतम ! मे २४य नथा. (एवं वितीओ वि आलावगो) माले मासा५४ ५९ मा प्रभार of सभरवा. (नवरं) ५ तेभा मा २नी विशेषता सभावा-(वाहिरए पोग्गले