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भगवतीने मावितात्मा फियन्ति दिया यशोपत्रीतकरयगतानि रूपाणि विकृषितुं समर्थः? इनि अपरः गौतममरना, विकृर्वणया पैकियसमुद्घावेन यहनि ताशरूपाणि विकृति समर्थः, तावाने रूपैः दीपढीपान्तराणि यावदरगाढावगाहानि पर्नु ममर्यः, किन्तु विषयमात्रमेतत् , नो संपत्या यारद-विकुर्विष्यति वा' इत्यन्तं सर्व स्वयमहनीयम् । पुनः गौतमः पृच्छति-' से जहा नामए ' हे मदन्त ! नया नाम 'केइ पुरिसे' फोऽपि पुरुष: 'एगओ पल्हत्यिो एकतः पम्तिकाम् अर्धपासनादिविशेपम् 'फा' कृत्वा 'चिटेजा तिप्ठेत् उपविशेद 'एवामेव' एवमेव तथैव 'अणगारे वि' अनगारोऽपि 'भाविअप्पा' मावितात्मा कि है भदन्त ! यादि भाषितात्मा अनगार इस प्रकारसे आकाश में अचे चल सकना है तो वह ऐसे कितने रूपों की अपनी विकुर्वणा द्वारा निप्पत्ति (चना) कर सकता है ? इसका उत्तर देते हुए प्रभु कहते हैं कि हे गौतम ! वह भावितात्मा अनगार वैफियसमुद्धात से ऐसे अनेक रूपोंकी निष्पत्ति कर सकता है यहांतक कि वह ऐसे अनेकरूपों से संपूर्ण इस जंबूदीपको तथा और भी अनेक द्वीपसमुद्रों को गाढावगाढरूप से भर सकता है । किन्तु यह इस प्रकारका कथन केवल उसकी शक्तिमात्र का प्रदर्शन करने निमित्त कहा गया जानना चाहिये-क्योंकि उसने आजतक ऐसे रूपों से द्वीप दीपान्तरोंको न भरा है, न भरता है न वह आगे भी भरेगा। पुनः गौतम प्रभु से पूछते हैं-'से जहा नामए केइ पुरिसे' जैसे कोई पुरुप 'एगओ पल्हथियं काउं' एक ओर अर्द्धपद्मासन आदि मांडकर बैठता है
चामेव' इसी तरह से वह 'भावियप्पा अणगारे वि' भावितात्मा “હ ભદન્ત ! બન્ને ખભે જેનેy. ધારણ કરી હોય એવાં કેટલાં પુરુષ રૂપની ભાવિ તાત્મ અણુગાર વિક્ર્વણું કરી શકવાને સમર્થ છે? , -
* ઉત્તર-હે ગૌતમ !, ભાવિતામાં અણગાર એવા એટલા બધાં રૂપોની વિમુર્વણ બની શકે છે કે, એવાં વૈક્રિય રૂપ વડે તે, સમસ્ત - જંબદ્વીપને તથા અનેક દ્વીપ અહોને પરેપૂરા ભરી શકવાને સમર્થ છે. પરંતુ તેમની શક્તિ બતાવવા માટે જ *કથન કરવામાં આવ્યું છે. ખરેખર તે તેમણે આજ પર્યન્ત કદી પણ એવાં રૂપથી
હીપત્ર ભર્યો નથી, વર્તમાનમાં ભરતા નથી અને ભવિષ્યમાં ભરશે પણ નહીં. " कभी महापार प्रभुने पूछे छ -' से जहानामएपरिसे....२वी शत पुरु५ 'एगओ पल्हत्थियं काउं'. अति islaijीन (मासन पालन) से 'एवामेत्र मेल ,प्रभाव 'भावियप्पा अणगारे वि भावितामा
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