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________________ १८८ भगतिम्रो नत् तस्मात् कारणात यायत्-तापत् अहिरण्येन-जतेन, गावस्करणा मुवर्ण धन धान्य-पुत्र-पशुभिः वदामि' पर्दै. 'जार-भईन अईस' यायत् अतीवातीव 'अभिवइटामि' अभिवर्दे, यावत्करणेन विपुलवन-यय-रत्न-मणि-मौक्तिकश-शिला-प्रयाल-रक्तरत्नसत्सारस्वापतेगेन इति चिनम्, 'जाव चणं मे' यावत् खलु मम 'मित्त-नाइ-नियग-संधि परियणो' मित्र-ज्ञानि-निनासम्बन्धिपरिजनः ज्ञातिः सजातीयः, निजका गोप्रजा, सम्बन्धी माठपक्षीयः परिजनः दासादिः, तथाच मुहदसमानगोत्रीयसहवासिकटुम्नपरिवारपिठनउदासीन न पर्ने यही सप वार मौर्यपुत्र ताम्रलिप्त अप विचार करता है-'तं किं अहं पुरा पोराणाणं सुचिपणाणं जाव कहाणं कम्माण एगंतसो संयं उवेहमाणे विहरामि' वह सोचता है कि ये सय पूर्व भव में दानादिकरूप से आचरित किये गये यावत शुभकर्मो के उदय से सांसारिक सुग्वदायी पदार्थ प्राप्त हुए हैं तो क्या इतन मात्र से मैं संतुष्ट होकर इनका विनाश अपनी आँखों से देख । अर्थात् 'मुझे इतना स्तुखादिक प्राप्त है ही अतः मुझे इतना ही दक्ष है। इस घुद्धि से भाविसुखके साधन आदि में उदासीनता धारण करके निष्क्रियरूप से कालक्षेपण करना उचित नहीं है-'त जाग ताव' इस लिये जपतक मैं "हिरण्णणं वदामि जाव अईवर अभिव कामि जाय च णं मे मित्त, नाइ, नियग, संपधि-परियणी आठाइ' हिरण्य आदिक पदार्थो से पद रहा ह-यावत् इन सब की अधिः काधिक मात्रा में मेरे यहां खूप घृद्धि हो रही है- (यहां यावत् पद से "विपुल धन कनक रत्न आदि पूर्वोक्त पाठ गृहीत हुआ है) और जबतक मेरे मित्रजन, ज्ञातिजन-सजातीयजन, निजजन-समान "तं किं अहं पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं जाव कडाणं कम्माणं एगंतसोक्खयं उवेहमाणे विहरामि" ते तामसित वा क्या२ ४२ छ, नभा દાનાદિ રૂપે આચરેલાં શમકના ફળ રૂપે મને સાંસારિક સુખ આપનારા પદાર્થોની શ એટલાથી જ સંતોષ પામીને તેમ જ? એટલે કે “મને આટલા બધાં સુખની પ્રાપ્તિ થઈ છે, એ મારે માટે પુરતાં છે" આ વિચાર કરીને ભાવિ સુખની પ્રાપ્તિ પ્રત્યે ઉદાસીન થવું તે ચગ્ય ન ગણાય. "तं जाय ताव" al arयां सुधी ॥२ या "हिरण्णे नामि जाव अईव२ अभिवामि" प्रत्याहि २५य (य)ना धा। ५४ २४या छ. सुवर्थना qया। થઈ રહે છે, ધન, ધાન્ય, મણિ, રત્ન આદિ ઉપરોક્ત સઘળી ચીજોનો વધારે થઈ રહયો છે - તે દરેક અધિકને અધિક પ્રમાણમાં વધી રહયાં છે, અને જ્યાં સુધી भारत भित्री, ज्ञातिने, निarai (समान aint ali, भीम), समधी મામ વિનારા મારી આંખેથી જ
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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