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________________ ९१७ ममेयचन्द्रिका टीका श. ४ उ १० सू.१ लेश्यापरिणाम निरूपणम् प्रदेशावगाढाः, वर्गणाविषये च कृष्णलेश्यादियोग्यद्रव्यवर्गणाः अनन्ताः औदारिकादिवर्गणावत्, स्थानविषये च तारतम्येन विचित्राध्यवसायनिबन्धनानि असंख्येयानि कृष्णादिद्रव्याणि, अध्यवसायस्थानानाम संख्यातत्वात् लेश्यास्थानानामल्पबहुत्वं वाच्यम् । तच्चैवम्- 'एए सिणं भंते! कण्ड लेसाठाणा णं जाव - सुक्कलेसाठाणाण य जहम्नगाणं दव्वट्टयाए पाए पसाए कयरे कयरेहिता अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जहन्नगा काउलेसा असंख्यात (क्षेत्र) प्रदेशो में है । औदारिकादिक वर्गणाओं की तरह कृष्णलेश्या आदि के योग्य द्रव्यवर्गणाएं अनन्त है। तरतम आदि रूप से विचित्र बने हुए ऐसे अध्यवसायों के कारणभूत कृष्णाद्द्रिव्य भी तरतमादिरूपसे असंख्यात है । क्योंकि अध्यवसाय स्थान असंख्यात होते है । तात्पर्य कहनेका यह हैं कि जब अध्यवसायेोके स्थान असंख्यात है तो अध्यवसाय भी असंख्यात ही है । और जब अध्यवसाय असंख्यात है तो इन असंख्यात अध्यवसायों के कारणभूत कृष्णादि द्रव्य भी उनके तरतमादिरूप को लेकर असंख्यात है । लेश्याओं के स्थानों का अल्पबहुत्व इस प्रकार से हैं- प्रभु से गौतम पूछते हैं कि हे भदन्त ! कृष्णलेश्या के जघन्यस्थानों में और यावत् शुक्ललेश्या के जघन्यस्थनों में द्रव्यार्थ रूप से, प्रदेशार्थरूप तथा द्रव्यार्थम देशार्थ दोनों रूप से फौन स्थान किन स्थानों की अपेक्षा से अल्प है, कौन स्थान किन स्थानों को अपेक्षा से बहुत हैं, कौन स्थान किन स्थानों की अपेक्षा समान हैं, तथा कौन से स्थान किन स्थानों की છે. ઔદારિક આદિ વણાઓની જેમ કૃષ્ણલેશ્યા આદિને ચગ્ય વ્યવગણા અનંત છે. તરતમ આદિ રૂપે વિચિત્ર ખનેલા એવા અધ્યવસાયાના કારણરૂપ કૃષ્ણાદિ દ્રવ્ય પણ તરતમ આદિરૂપે અસંખ્યાત છે, કારણ કે અવ્યવસાય સ્થાન અસખ્યાત હાય છે. તેનું તાત્પર્ય એ છે કે જે અધ્યવસાયના સ્થાન અસખ્યાત હાય, તે અધ્યવસાય પણ અસખ્યાત જ હાય, અને જો વ્યવસાય અસંખ્યાત હાય તોં તે અસખ્યાત અધ્યવસાયેના કારણભૂત કૃષ્ણાદિ દ્રવ્ય પણ તેમના તરતમ આદિ રૂપની અપેક્ષાએ અસ ંખ્યાત હાય છે.લેશ્યાઓનાં સ્થાનનું અલ્પ મહુત્વ નીચે પ્રમાણે છે ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને પૂછે છે- ‘હે ભદન્ત ! કૃષ્ણુલેસ્યાથી શુકલલેશ્યા પન્તની લેશ્યાઓનાં જઘન્ય [આછામાં એાછાં] સ્થાનેામાં દ્રબ્યાર્થરૂપ, પ્રદેશાર્થરૂપ,
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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