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________________ ५२८ सूत्रकृताङ्गवे तथा 'अणाविले' अनाविलः रागद्वेषादिकालुष्यरहितः अतएव 'अणाउले' अनाकुलः-विषयेषु-अपवर्तनात् स्वस्थचित्तः । तथा-'सया' सदा सर्वकालम् 'दंते' दान्तः इन्द्रिय नोइन्द्रियनिग्रहवान् ईदृशः पुरुषः 'अणेलिसं' अनीदृशम्-अनन्य सदृशम् 'सधि सन्धि-कर्मविवरलक्षणं भावसन्धिम् पत्ते' मातो भवतीति ॥१२॥ मूलम्-अणेलिसल्स खेयन्ने ग विरुज्झिज्ज केणइ । मणला वयसा व कायसा चेव चक्खुमं ॥१३॥ छाया-अनीशस्य खेदज्ञो न विरुध्येत केनचिन् । मनसा वचसा एव कायेन एव चक्षुष्मान् ॥१३॥ पापों को नष्ट कर दे। रागळेष के फालुष्य से रहित हो अनाकुल हो, अर्थात् विषयों में प्रवृत्ति न करने के कारण स्वस्थचित्त हो, सदा इन्द्रियों और मन को दमन करे। इस प्रकार का महापुरुष अनुपम भावसमाधि को अर्थात् कर्म विवर रूप स्थिति को प्राप्त करता है ॥१२॥ 'अणेलिसस्त खेचन्ने इत्यादि। ___ शब्दार्थ-'अणेलिलस्ल-अनीदृशस्य' अनन्य के समान संयम में 'खेयन्ने-खेदज्ञः' जो निपुण पुरुप 'मणसा-मनसा' अंतःकरण से 'वयसा चेव-बचप्ला ए३५ वचन से 'कायला चेव-कायेनापि' काय से भी के पह-केनचित्' कोई भी प्राणी के साथ 'ण विन्मिजज-न विरु ध्येत' संयम में निपुण सुनि किसी के साथ विरोध न करे ऐसा पुरुप 'चक्खुम-चक्षुष्मान् । परमार्थ को जानने वाला है ॥१३॥ વિગેરે પાપનું નિવારણ કરે. રાગદ્વેષના કલુષિતપણાથી રહિત થાય, આકુળ ન થાય, અર્થાત વિષયમાં પ્રવૃત્તિ ન કરવાને કારણે સ્વાસ્થચિત્ત થાય સદા ઈન્દ્રિો અને મનનુ દમન કરે. આવા પ્રકારના મહાપુરૂષ અનુપમ ભાવ સમાધિને અર્થાત્ કમ વિવર રૂપ સ્થિતિને પ્રાપ્ત કરે છે. ૧ર शहाथ:--'अणेलिसस्स-अनीहशस्य' मन-यनी स२मो सयममा खेयन्ने -खेदज्ञ.' नि मे रे ५३५ 'मणसा-मनसा' ५'त:४२थी 'वयसा चेववचसा एव' क्यनयी 'कायसा चेव-कायेनापि' याथी ५ 'केणइ-केनचित्' । ५ प्राणीनी साथै ‘ण विरुज्झिज्ज-न विरुध्येत' विरोध न १२ मे १३१ 'चक्खुम-चक्षुष्मान्' ५२मान पापाणी छे. ॥१३॥
SR No.009305
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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