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________________ सूत्रहता अन्वयार्थ:-(मेहावी उ) मेधावी तु सदसद्विवेकी मर्यादावान् मनित (लोगंसि) लोके स्थावरजङ्गमात्मके पञ्चास्तिकायात्मके वा जगति (पावगे): पापकं सावद्यानुष्ठानरूपं पापं कर्म (जाणं) जानन ज्ञपरिज्ञया कर्मवन्धहेतुभूदरवेन. अवबुध्यमानः सन् (तिउट्टइ) त्रुटयति-पृथग्भवति सावधानुष्ठानाद् विरमवि वर्तमानकाले प्रत्याख्यानपरिज्ञया पापं कर्म न करोतीत्यर्थः । तथा (नवं) नवंन्तनम् अग्रे करिष्यमाणं (कम्म) कर्म (अकुचो) अकुर्वतः-अनाचरतस्तस्य मुनेः (पावकम्माणि) पापकर्माणि-अतीतकालेऽनन्नभवोपार्जितत्वेन संचितानि पापहैं अर्थात् सायद्यानुष्ठानसे निवृत्त होते हैं तथा 'नवं-नवम्' नृतनं आगे किये जाने वाले 'कम्म-कर्म' कर्म को 'अकुव्य प्रो-अकुर्वतः' न करते हुए उस मुनिको 'पावकम्माणि-पापकर्माणि' अनीत काल में अनेक भोपार्जित होने से संचित पापकर्म 'तुनि-त्रुटयन्ति' छूट जाते हैं अर्थात् वह मुनि वर्तमान भविष्य, और भून ऐसे तीनो काल संप. न्धी पापकम से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है। अन्वयार्थ--सत् असत् के विवेक से युक्त मेधावी मुनि स्थावर जंगम रूप या पंचास्तिकायमय जगत् में पाप कर्मों को झपरिज्ञा से कर्मषन्ध का कारण जानता हुआ सावध अनुष्ठान से विरत हो जाता हैं। वर्तमान काल में प्रत्याख्यान परिज्ञा से पापकर्म नहीं नारता है। तथा आगे किये जाने घाले पापकर्म का आचरण न करने वाले मुनि के अतीत काल में अनन्त भवों से संचित किये हुए पापकर्म भी छ. अर्थात् सावध मनुष्ठानथी निवृत्त 25 लय छे. तथा 'नव-नवम्' नवीन मर्थात पछीथी ४२वामां माना। 'कम्म-कर्म' भने 'अकुब्वओ-अकुर्वतः' न ४२ना। मेवा से भुनिन 'पावकम्माणि-पापकर्माणि' मतीन भो भने मापात पाथी सयित पा५: 'तुति-त्रुट्यन्ति' टि तय है. અર્થાત તે મુનિ વર્તમાન ભવિષ્ય અને ભૂતકાલ એમ ત્રણે કાળ સંબધીપાપકર્મથી મુક્ત થઈને મોક્ષને પ્રાપ્ત કરે છે. દા અયાર્થ-સત્ અસતના વિવેકથી યુક્ત મેધાવી મુનિ સ્થાવર, જંગમ, રૂપ અથવા પંચાસ્તિકાય મય જગતમાં પાપકર્મોને જ્ઞ પરિસ્સાથી કર્મબંધનું કારણ જાણીને સાવદ્ય અનુષ્ઠાનથી વિરત થઈ જાય છે. વર્તમાનકાળમાં પ્રત્યા ખ્યાન પરિણાથી પાપકર્મ કરતા નથી. તથા આગળ કરવામાં આવનારા પાપ કર્મનું આચરણ ન કરવાવાળા મુનીને ભૂતકાળમાં અનંત ભવમાં સચિત-કરવમાં આવેલ પાપકર્મ પણ આત્માથી અલગ થઈ જાય છે. તાત્પર્ય એ છે
SR No.009305
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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