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________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. अ. १५ आदानीयस्वरूपनिरूपणं प्रतिपादयिता भवति इति अर्हन्नेाऽतीतानागतवर्त्तमानवर्तिनोऽर्थस्य आरुपाता वर्तते, अतः 'न तत्र तत्रे' ति सुष्टुक्तम् इति ||२|| ? मूलम् - तर्हि तर्हि सुक्खायं से य सच्चे सुगाहिए । सया सच्चेण संपन्ने मितिं भूपहिं कंप्पए ॥३॥ छाया -- तत्र तत्र स्त्राख्यातं तच्च सत्यं स्वाख्यातम् । सदा सत्येन संपन्नो मैत्रीं भूतेषु कल्पयेत् || ३ || अर्हन्त ही अतीत अनागत और वर्त्तमान काल के पदार्थों के ज्ञाता हैं। इस प्रकार ठीक ही कहा गया है कि ऐसे धर्मप्रणेना अन्य दर्शनों में नहीं है ॥२॥ 'तहिं तर्हि सुक्खायें' इत्यादि । शब्दार्थ - 'तहिं तहिं तत्र तत्र' श्री तीर्थङ्करदेव ने आगमादि स्थानों' में 'सुवक्वायं - स्वाख्यातम्' सम्यक् प्रकार से जीवादि पदार्थोंका कथन किया है 'से य-तच्च' वह भगवत् कथन ही 'सच्चे - सत्यं ' सकल जगज्जीवों के हितकारक होने से यथार्थ है और वही 'सुाहिएस्वाख्यातम्' सम्यक् प्रतिपादित होने से सुभाषित है अतः 'सच्चेणसत्येन' मुनि संयम से 'संपन्ने- संपन्नः' युक्त होकर 'भूएहिं - भूतेषु' प्राणियों में 'मित्ति - मैत्रीम' मैत्रीभाव 'कप्पए-कल्पयेत्' करे अर्थात् कहीं भी जीवविराधना की भावना न करें ॥ ३ ॥ અર્હન્ત ભગવાન જ અતીત, અનાગત, અને વત માન કાળના પાને જાણુ નારા છે. આ પ્રમાણે ઠીક જ કહ્યુ છે કે-માવા ધમ પ્રણેતા અન્ય ઇનામાં નથી તારા 'तहि तहि सुयक्वाय' त्यिाहि शब्दार्थ—'तहि ं तहिं'–तत्र तत्र' श्री तीर्थ ५३ देवे आगम विशेष स्थानाभां ‘सुयक्खाय’-स्वाख्यातम्' सारी रीते वाहि हाथ उथन यु छे 'से य- तच्च' से भगवत् अथन ४ 'सच्चे - सत्य'' समस्त भगवानु डित४२ होवाथी यथार्थ हे भने सेन 'सुयाहिए - स्वाख्यातम्' सभ्य प्रतिपाहन उरेस होवाथी सुभाषित छे. तेथी 'सच्चेण - सत्येन' भुनि सयभथी संपन्ने-संपन्नः' युक्त मनीने 'भूएहिं' - भूतेषु' आडियोमा 'मित्ति - मैत्रीम् ' मैत्रीभाव ' कप्पए - कल्पयेत्' अरे अर्थात् ज्यांय पशु कवोनी विराधनानी ઈચ્છા ન કરે ॥૩॥
SR No.009305
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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