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समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. १४ ग्रन्थस्वरूपानरूपणम्
'सदेव सर्व को नेच्छेत् , स्वरूपादिचतुष्टयात् ।
असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥१॥इति॥ एतेन स्याद्वादो न मूलागमप्रसिद्धः, अपि तु आचीनै निवेशितः इति शङ्काऽपि परास्ता । 'विभज्नवार्य' इति मूलाक्षरत एव तस्य स्याद्वादस्प प्रादुर्भावात् । यद्य. प्यत्र स्याद्वादो न बीजरूपेणैव निहितो न तु स्वरूपेण तथापि वृक्षरूपेण काले भविष्यति । विराज्यवादमपि द्वि केनैव वक्तव्यम् । तत्राह-'भालादुयं' इति । 'भासायं' भाषाद्विकम् यत्र कुत्रापि वदेत् साधु स्तत्र धर्मव्याख्यानावसरे,
और पर भाव की अपेक्षा से नहीं हैं। कहा भी है 'सदेव सर्व को नेच्छेत्' इत्यादि।
स्वरूप आदि चतुष्टय की अपेक्षा से समस्त पदार्थों को सत् कौन नहीं मानेगा! इसी प्रकार पररूप आदि चतुष्टय से ये असत् हैं। ऐसा भी कौन स्वीकार न करेगा? अगर ऐलो न माना जाय तो पदार्थों का स्वरूप सिद्ध ही नहीं हो सकता।
विभज्यवाद के कथन से यह शंका भी दूर हो जाती है कि स्था. दाद मूल आगनों से सिद्ध नहीं है। परन्तु अर्वाचीन आचार्यों ने उसका निवेश किया है । 'विप्रज्जवाय' इन मूल अक्षरों से ही स्या दाद का प्रादुर्भाव हुआ है । यद्यपि यहां स्याद्वाद का बीज रूप से नहीं विधान किया गया है, सप्तभंगी के रूप में नहीं तथापि वृक्ष रूप से तो समय पाकर ही होगा ? इस विभज्यवाद का कथन भी दो प्रकार की भाषाओं द्वारा ही करना चाहिये अर्थात् सत्य भाषा और व्यवहार ४, सन ५२मापनी अपेक्षाथी नथी. ४यु ५५ छ -'सदेव सर्व को नेच्छेत्' इत्यादि
સ્વરૂપ વિગેરે ચતુષ્ટયની અપેક્ષાથી સઘળા પદાર્થોને સ કે નહીં સમજે ? એજ પ્રમાણે પરરૂપ વિગેરે ચતુષ્ટયથી તેઓ અસત્ છે. એવું પણ કે નહી સ્વીકારે ? જો એવું માનવામાં ન આવે તે પદાર્થોનું સ્વરૂપ સિદ્ધ જ થઈ શકતું નથી.
વિભય વાદના કથનથી એ શંકા પણ દૂર થઈ જાય છે-સ્યાદ્વાદ મૂળ આગમથી સિદ્ધ નથી. પરંતુ અર્વાચિન આચાર્યોએ તેને નિવેશ કરેલ છે. 'विभज्जवाय' । भूण सरोथी स्याद्वाहन प्रावि थये छे. नेमडिया
સ્યાદ્વાદનું બીજ રૂપે જ વિધાન કરેલ નથી તેમ સપ્તભંગીના રૂપે પણ નહીં તે પણ વૃક્ષ રૂપથી તે સમયે મેળવીને જ થશે. આ વિભજ્યવાદનું કથન પણ છે