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सूत्रकृताङ्गसूत्रे अतो यः प्रवज्पामादायाऽ पे गृहस्थहर्स जाति मदादिकं सावधर्म वा सेवते, स कर्म क्षपयितुं समर्थो न भवनीति भावार्यः ।।११।। मूलम्-णिकिंचणे भिक्खू सुलूहजीवी,
जे गारवं होई सिलोगगामी । आजीवमयं तु अबुज्झमाणो,
पुणो पुणो विप्परियासुवेइ ॥१२॥ छाया-निष्किञ्चनो भिक्षु मुरूक्ष जीवी, यो गौरववान् भवति श्लोककामी।
आजीवमेतत्त्ववुद्धयमानः, पुनः पुनर्विपर्यासमुपैति ॥१२॥ वह समस्त कर्मों का क्षय करने के लिए समर्थ नहीं होता कहा भी है 'जातिः कुलं' इत्यादि।
धीर पुरुषों का कथन है कि जाति अथवा कुल जीव की रक्षा करने में समर्थ नहीं है । हे ज्ञानी ! ज्ञान और चारित्र ही आत्मा की रक्षाकरने में समर्थ होते हैं।
अतएव जो दीक्षा स्वीकार करके भी गृहस्थ के योग्य कार्य करता है या जाति मद् आदि का सेवन करता है, वह कर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं होता है ॥११॥
'णिकिंचणे भिक्खू' इत्यादि ।
शब्दार्थ-'जे भिक्खू-यो भिक्षुः' जो साधु 'णिकिंचणे-निकि चन:' बाह्यपरिग्रह से रहित अर्थात् द्रव्य आदि नहीं रखता है भाना क्षय ४२पामां समर्थ थ शत नथी. यु ५ छ-'जाति:कुळं त्यादि
ધીર પુરૂનું કથન છે કે--જાતિ અથવા કુળ જીવની રક્ષા કરવામાં સમર્થ નથી. હે જ્ઞાની! જ્ઞાન–અને ચારિત્ર જ આત્માને રક્ષા કરવામાં સમર્થ થાય છે !
તેથીજ જેઓ દિક્ષાને સ્વીકાર કરીને પણ ગૃહસ્થને ચગ્ય એવા કાર્યો કરે છે, અથવા જાતિ મદ આદિનું સેવન કરે છે, તે કર્મોને ક્ષય કરવામાં સમર્થ થઈ શકતા નથી. ૧૧
'णिकिंचणे भिक्खू' या
शार्थ - 'जे भिक्खू-ये भिक्षुः' रे साधु ‘णिकिंचणे-निष्कि चनः' पाह्य परिअडथी २डित अर्थात द्रव्य विशेरे रामता नथी, तथा 'सुलूहजीवी-सुरूक्ष