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________________ समयार्थबोधिनो टोका प्र.श्रु. अ. १२ समवसरणस्वरूपनिरूपणम् २४७ परतीथिका यानि यानि स्व स्व मतानि परिगृहीतानि तानि तानीमानि-क्रियावादाऽक्रियावादविनयरादाऽज्ञानवादरूपाणि, ज्ञातव्यानीति भावः ॥१॥ मूलम्-अण्णाणिया ता कुसला दि संता, असंथुयाँ णो वितिगिच्छतिन्ना। अकोविया आहु अकोदिएहिं, अणाणुवीइत्तु सुसं वयंति ॥२॥ छाया-अज्ञानिकास्ते कुशला अपि सन्तोऽमंस्तुवा नो विचिकित्सा तीर्णाः। अकोविदा आहुरकोविदेभ्योऽनत विचिन्त्य तु मृपा वदन्ति ॥२॥ ___ अभिप्राय यह है कि परतीथिकोने जो जो भी मत अंगीकार किये हैं, वे सब घियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद में समाविष्ट हो जाते हैं ॥१॥ 'अण्णाणिया' इत्यादि । शब्दार्थ-'ता-ते' वे 'अण्णाणिया-अज्ञानिकाः' अज्ञानवादी 'कुसला वि संता-कुशला अपि सन्त.' अपने को अपने अपने मतके ज्ञान में कुशल मानते हुवे भी 'जो-नो' न 'वितिगिच्छतिनाविचिकित्साती: संशय से रहित है-अर्थात् संशयवाले ही वे है, संशयरहित नहीं है, अतः वे 'असंथुपा-असंरतुना मिथ्यावादी होने से लोकों के स्तुति पात्र नहीं हैं 'अकोविधा-अकोविदाः' वे सझसत् विवेकसे रहित होने से स्वयं अज्ञानी हैं और 'अकोविएहि-अकोवि કહેવાને અભિપ્રાય એ છે કે-પરતીથિકે એ જે જે મતને અંગીકાર કરેલ છે, તે બધા કિયાવાદ અક્રિયાવાદ, વિનયવાદ, અને અજ્ઞાનવાદમાં સમાઈ જાય છે ના 'अण्णाणिया' त्या शार्थ -'ता-ते' मे. 'अण्णाणिया-अज्ञानिकाः' अज्ञानाहीयो 'कुसला वि संता-कुशला अपि सन्स' पाताने पातयाताना भतना ज्ञानमा शल भानता ! छतi ५ णो-नो' न तमा 'वितिगिच्छविन्ना-विचिकित्सा तीर्णा' सय २हित छ. अर्थात तसा संशय २हत नथी से शय युती छे. तथा त। 'भसथुया-असंस्तुता.' भिथ्यापही वाथी सोना स्तुतिपात्र नथी 'अकोविया-अकोविदा.' ती अ६ सद् विवे विनाना होपाथी मज्ञानी छ, भने 'अकोविएहिं-कोविदे-यो' मसानी शिध्यान 'अणाणुवीइत्तु
SR No.009305
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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