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________________ Jin २२० सूत्रकृतशिस्त्र च्छिद्रामित्यर्थः 'नाव' नौकास् 'दुरुहिया' दुरुह्य अधिरुह्य 'पार' पारम्-समुद्रस्य परतीरम् 'आगंतुं' आगन्तु-प्राप्तुम् इच्छई' इच्छति, किन्तु पारं गन्तुं न शक्नोति, अपितु 'अंतरा' अन्तग-मध्ये एव जलाध्य एव 'विसीयइ विपीदति-दुःखमासा. दयति निमज्जवीत्यर्थः, साधनस्य सदुष्टतया कार्याक्षमत्वात् ।।३०॥ मूलम्-एवं तु समगा एंगे, मिच्छट्टिी अणारिया। सोयं कसिणमावन्ना, आगंतारो महन्भय॥३१॥ ., ' छाया-एवं तु श्रमणा एके, मिथ्यादृष्टयोऽनार्याः ।. .. स्रोतय कृत्स्नमापन्ना, आगन्तारो महद्भयम् ॥३१॥ प्रवेश कर रहा हो ऐमी सैकडो छेदों वाली नाच पर आरूढ होकर समुद्र के किनारे पहुंचने की इच्छा करता है, किन्तु वह पहुंच नहीं सकता। वह धीच जल में ही विषाद को प्राप्त होता है, दुःखी होता है, डूब जाता है, क्योंकि उसका साधन दृपित होने के कारण कार्य उत्पन्न करने में असमर्थ होता है ॥३०॥ ‘एवंतु समणा एगे' इत्यादि। शब्दार्थ-'एवं तुमिच्छद्दिट्टी अणारिया एगे समणा-एवं तु मिथ्या दृष्टयः अनार्याः एके श्रमणाः' इसी प्रकार मिथ्या दृष्टि कोई अनार्य श्रमण 'कसिणं सोयं आवना-कृत्स्नं स्रोतः आपन्नाः' पूर्णरूपसे आस्रव का सेवन करते हैं 'महाभयं आगतारो-महद्भयम् आगन्तार" अतः वे महाभय को प्राप्त करेंगे ॥३१॥ રહેલ હોય એવી સેકડે છિદ્રોવાળી નાવ પર બેસીને સમુદ્રને કિનારે પહચવાની ઈચ્છા જ કરે છે, પણ તે તેમ પાર પહેચી શક્તા નથી, તે વચમાં પાણીમાં જ ખેદને પ્રાપ્ત થાય છે, દુઃખી થાય છે, અને ડૂબી જાય છે. કેમકે તેનું સાધન દોષવાળું હોવાથી કાર્ય સિદ્ધ કરવામાં અસમર્થ હોય છે ૩૦ 'एवं तु समणा एगे' त्या शहाथ---एवं तु मिच्छट्ठिी अणारिया एगे समणा-एवं तु मिथ्या दृष्टयः अनार्याः एके श्रमणाः' मे प्रमाणे मिथ्या दृष्टि वाणे मनाय" श्रम 'कनिणं सोय आवन्ना-कृतन स्रोतः आपन्नाः' पृथु ३५थी मासवानु सेवन ४रे छ. 'महन्मय आग तारो-महद्भयम् आगन्तारः' तथा तमा महालय માપ્ત કરશે. ૩૧
SR No.009305
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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