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________________ इति । ग्रामादौ मायो वाहुल्येन श्रद्धाशीलानां निवासस्थानं भवति, तत्र यदि धर्म श्रद्धालु धर्मयुद्धथा हिंसामयं कार्य कुर्यात-पवन साधु पृच्छेद् यन्मदीयमिदं कार्य शोभनं न वा ? तदाऽऽत्मगुप्तो जितेन्द्रियः साधु स्तादृशे सावकार्येऽनुमति नैव दद्यादिति भावः ॥१६॥ . साधुः सारयकार्येऽनुमति न दद्यादेतद्विपये सुत्रकार आहमूलम्-तहा गिरं समारम्भ, अस्थि पुगणं ति णो वए । अहवा णत्थि पुण्णं ति, एंवमेयं महअयं ॥१७॥ छाया--तथागिरं समारभ्य, अम्ति पुण्यमिति नो वदेत । ___अथवा नास्तिपुण्य मित्येन्महाभयम् ।।१७।। ग्राम आदि में प्रायः श्रद्धालु जनों के स्थान होते हैं, जहां साधु ठहर जाते हैं। ऐसे स्थानों में अगर कोई धर्म श्रद्धालु धर्म बुदि से हिंसामय कार्य करे और साधु से पूछे कि मेरा यह कार्य अच्छा है या नहीं ? तो आत्मगुप्त एवं जितेन्द्रिय साधु उस सावद्य कार्य में अनुमति प्रदान न करे ॥१६॥ साधु सावध कार्य में अनुमति न दे, इस विषय में सूत्रकार करते हैं-तहा गिर समारम्भ' इत्यादि। शब्दार्थ-तहा गिर समारम्भ-तथा गिर समारभ्य' उम प्रकारकी वाणी सुनकर 'अस्थि पुण्णंति णो वए-अस्ति पुण्यमिति नो वदेत्' पुण्य है ऐसा न कहे 'अहवा त्यि पुष्णनि-अथवा नास्ति पुण्पमिति' अथवा पुण्य नहीं है इस प्रकार का कधन भी 'एवमेयं महाभयं-एकमेतन्महालयम्' यह कहना भी महात् भय जनक है ॥१७॥ ગ્રામ વિગેરેમાં પ્રા. શ્રદ્ધાળું મનુષ્યનો નિવાસ હોય છે, કે જ્યાં સાધુ રહી જાય છે. એવા સ્થાનમાં અથવા જે કેઈ ધર્મ શ્રદ્ધા ધર્મબુદ્ધિથી હિંસામય કાર્ય કરે અને સાધુને પૂછે કે-મારૂં આ કાર્ય સારું છે કે નહીં? તે આત્મગુપ્ત અને જીતેન્દ્રિય એવા સાધુએ તે સાવધ કાર્યમાં અનુમતિ આપવી નહીં. ૧દા * સાધુ સાવધ કાર્યમાં અનુમતિ ન દે, આ વિષયમાં સૂત્રકાર કહે છે हैं-तहा गिर समारम्भ' त्या Awaa--'तहा गिर समारभ-तथा गिरं समारभ्य' मेवा २नी alll श्रामगीर 'अत्थि पुण्णंति णो वए-अस्ति पुण्यमिति नो वदेत्' धुश्य थाय छे. तम न . 'अहवा णत्थि पुण्णंति-अथवा नास्ति पुण्यमिति' एय नया
SR No.009305
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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