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________________ - - समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ११ मोक्षस्वरूपनिरूपणम् म्लम्-उड़े अहे य तिरियं, जे केइ तलथावश । सव्वत्थ विरतिं कुजा, संति निव्वाणमाहियं ॥११॥ छाया-ऊर्ध्वमस्तिर्यग् ये केचित् त्रसस्थावराः । सर्वत्र विरतिं कुर्यात्, शान्तिनिर्वाणमाख्यातम् ॥११॥ अन्वयार्थः-(उड़ अहेयतिरियं) अर्वमस्तियक् (जे केइ तसथावरा) ये केचन सा द्वीन्द्रियादयः स्थावरा:-पृथिव्यादयो जीवाः सन्ति (सव्वस्थ विरति कुन्जा) सर्वत्र-प्राणिसमुदाये विरति-माणातिपातनिवृत्ति कुर्यात् (संतिनिघाणमाहिय) इस्थं कुर्वत एव शान्तिनिवाण च-मोक्षो भवतीति आख्यातकथितमिति ॥११॥ 'उड्डू अहे य तिरियं' इत्यादि । शब्दार्थ--'उड़ अहे य तिरियं-ऊर्ध्वमस्तिर्यकू' ऊपर नीचे और तिरछा 'जे केइ तसथारा-ये केचन उसस्थावराः' जो त्रस और स्थावर प्राणी है 'सव्वत्य विरति कुज्जा-सर्वत्र विरति कुर्यात्' सर्वत्र उनकी हिंसासे निवृत्त रहना चाहिये 'संति निव्वाणमाहियं-शान्ति. निर्वाणमाख्यातम्' इस प्रकार से जीव को शान्तिमय मोक्ष की प्राप्ति कही गई है कारणकि विरतिमान् से कोई डरता नहीं हैं ॥११॥ ___अबयार्थ-ॐसी नीची और तिर्की दिशाओं में जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उन खुध में प्राणातिपात श्री निवृत्ति करनी चाहिए । ऐसा करने वाले को ही मोक्ष की प्राप्ति कही गई है ॥११॥ 'उई अहे य विरिय' त्याle शहा---'उढ़ अहे य तिरिय-ऊर्ध्वमधस्तिर्य' ५२ नीय सने त२७। 'जे केइ तसथावरा-ये केचन त्रस स्थावरा.' २ स भने स्था१२ पनि छ 'सव्वत्थ विरति कुना-सर्वत्र विरतिं कुर्यात्' भनी हिंसाथी सत्र-स प्राथी निवृत्त २२ नये. संति निव्वाणमाहियं शान्तिनिर्वाणमाख्यातम्' मा शत छपने शान्तिमय भक्ष प्रालि ही छे. १२६ वितियुत પુરૂષથી કઈ કરતું નથી. ૧૧ અન્વયાર્થ—ઉચી, નીચી. અને તિરછી દિશાઓમાં જે ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાચિ છે, તે બધામાં પ્રાણાતિપાતની નિવૃત્તિ કરવી જોઈએ. એમ કરવાવાળાને જ મોક્ષની પ્રાપ્તિ કહી છે. ૧
SR No.009305
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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