SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गसूत्र प्रथमाध्ययनस्यार्थाधिकारः परसमयवक्तव्यताऽप्यस्तीत्यध्ययनस्यार्थाधिकारे प्रतिपादनात् स्वसमयप्रतिपादितार्थकथनानन्तरं परसमयप्रतिपादितार्थप्रदर्शनाय शास्त्रकार आह-एए गंथे' इत्यादि ! एए गंथे विउकम्म, एगे समणमाहणा। अयाणंता विउस्सित्ता, सत्ता कामेहिं माणवाः ॥६॥ छाया-- एतान् ग्रन्थान् व्युक्रम्य, एके श्रमणब्राह्मणाः । अजानंतो व्युत्सिताः, सक्ताः कामेषु मानवाः ॥६॥ अन्वयार्थ--(एए) एतान्- पूर्वोदितान् (गंथे) ग्रन्थान्-अर्हत्प्रोक्तानागमान् (विउकम्म) व्युत्क्रम्य-अतिक्रम्य परित्यज्येत्यर्थः (विउस्सित्ता) व्युत्सिताः- विविधप्रकारेण को त्याग कर निरवद्य तप और संयम के आचरण रूप क्रिया के द्वारा ही जीच (आत्मा) कर्मवन्ध को नष्ट करता है ॥५॥ प्रथम अध्ययन में परसमय की वक्तव्यता भी है ऐसा अर्थाधिकार में प्रतिपादन किया गया है, अतः स्वसमय में प्रतिपादित अर्थ का कथन करने के पश्चात् परसमय में प्रतिपादित अर्थ को दिखलाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं-'एए गंथे' इत्यादि ॥ शब्दार्थ--'एए-एतान्' इन 'गंथे-ग्रंथान् ' ग्रंथोंको आगोंको 'विउक्कम्म व्युत्क्रम्य' छोडकर 'विउस्सित्ता व्युत्सिताः स्वसिद्धांत में अत्यंत वद्ध हैं 'एगेएके' कोई कोई 'समणमाहणा श्रमणब्राह्मणाः' शाक्यमतानुयायी भिक्षु और પદાર્થોના પરિગ્રહ પરિત્યાગ કરીને નિરવદ્ય તપ અને સ યમના આચરણ રૂપ ક્રિયા द्वारा 01 04 (मामा) भमन्धन नाश ४३ श छे. ॥५॥ પ્રથમ અધ્યયનમાં પરસમયની (જૈન સિવાયના સિદ્ધાતેની) વક્તવ્યતા પણ આપવામાં આવી છે, એ વાતનું પ્રતિપાદન અર્થાધિકારમાં કરવામાં આવ્યું છે, તેથી સ્વસમયમાં (જૈન સિદ્ધાંતમાં) પ્રતિપાદિત અર્થનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર પરસમય પ્રતિપાદિત मथने प्रगट ४२वा माटे नायना सूत्रीनु ४थन ४२ छ – “एए गथे" त्याह - शहाथ-'एए-एतोन्' मा 'गथे-ग्रंथान्' थाने मागभाने 'विउक्कम्म-व्युत्कृम्य' छोडीन 'विउस्सित्ता-व्युत्सिता.' स्वसिद्धांतमा अत्यत मधायेसा छे. 'पगे-पके आई Bई 'समणमाहणा-श्रमणब्राह्मणा' सय मतानुयायी भिक्षुमने माझY 'अयाणतो.
SR No.009303
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages701
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy