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________________ समार्थबोधिनी टीका प्र. थ्रु अ १ उ २ अज्ञानवादिमतनिरूपणे मृगदृष्टान्तः २८३ पूर्वोपदर्शितमेव दृष्टान्तं पुनरपि सूत्रकार, आवर्त्तयति 11 अह तं' मित्यादि गाथया - 71 • 1 1 1 f " 1 7- मूलम् - 10 १ अह ते पवेज्ज वज्झं. अहे वज्झस्स वो वए। 11 ९ - १० ११ १२ १३ १४ भुच्चेंज्ज" पय पासाओ, तं तु मंदे ण देहए ॥८॥ rf eti PIN '' F-1-छाया 11 3. 1 अथ तं प्लवेत- वध्यमधोवध्यस्य वा व्रजेत् मुच्येत पदपाशात्तत्तु मन्दो न पश्यति ||८|| , अन्वयार्थ: 1 (अह) अथ=अनन्तरं से मृगः (तं वज्झ ) ' तं वध्यं =बन्धन - योग्यं स्थानं जालमित्यर्थः, (पवेज्ज) प्लवेत = उल्लङ्केत | अथवा ( वज्ज्ञस्स) बध्यस्य हैं । इस कारण वे संसार के भय से कभी छूट नहीं सकते हैं । यह मिथ्या ज्ञान का ही माहात्म्य है ॥ ६-७ ॥ सूत्रकार पूर्वोक्त उदाहरण को पुनः स्पष्ट करते हैं। “अह तं" इत्यादि । " ,'יד 4 3 REF पकी 1P शब्दार्थ- 'अह - अथ' उपरोक्त प्रकार से जाल में फंस जाने के बाद 'तँ बज्झं–तं वध्यं' उस वन्धनको' 'पवेज्ज -प्लवेत ' लांधलेवें 'वावा' अथवा ‘वज्झस्स-वध्यस्य' बन्धनके ' अहे - अध:' नीचे से 'वए - वजेत्' निकलजायतो 'पयपासाओ - पदपाशात् ' चरण के बन्धन से 'मुच्चेज - मुच्येत' छूट सकता है 'तु तु' परंतु 'तं- तत्' उसे 'मंदे - मन्दः' मंद बुद्धिवाला वह मृग 'ण देहए- न पश्यति' नहीं देखता है ||८|| OPEL Ar Ar M 0 અનર્થાથી ભરેલા આ સસારમા પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે તે કારણે તેઓ સ સારના ભયમાથી કદી છૂટી શકતાનથી મિથ્યાજ્ઞાનને પરિણામે જ તેમની એવી દશા થાય છે ૫૬ છા सूत्रार पूर्वोत अहाहुरनु वधु स्यष्टी २४रे छे “अहे त" इत्यादि 1 शब्दार्थ - 'मह - अर्थ' उपर उद्या प्रमाणे लजमा इसाया पछी 'तं बज्झ - त वध्य' ये धन ने 'पवेज-प्लवेत' भोण गे 'वावा' अथवा 'वजस्स- वध्यस्य' संघननी 'अहे - अघ.' नीथेथी 'वप-व्रजेत' नीडणी लय तो 'पयपासाओ-पदपाशात्' पजना में धनथी 'मुच्वेज - मुच्येत' छूटी राडे छे 'तु तु' परंतु 'त-तत्' ते 'मदे-मद' भौंह -युद्धि वाजे । भेव ते भृण 'ण देहप-न पश्यति' हेणी रास्तो नथी. ॥८॥
SR No.009303
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages701
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size38 MB
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