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________________ अध्य० २. उ. १ मूलम्-जे गुणे से मूलट्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे इति से गुणट्ठी महया परियावेणं पुणो पुणो वसे पमत्ते, तंजहामाया मे पिया मे भइणी मे भज्जा मे पुत्ता मे धूआ मे पहुसा मे सहि-सयण-संगंथ-संथुआ मे विवित्तुवगरणपरिवणभोयणच्छायणं मे, इच्चत्थं गढिए लोए वसे पमत्ते अहो य राओ य परितप्पमाणे कालाकालसमुट्ठाई संजोगट्ठी अट्ठालोभी आलुपे सहसाकारे विणिविट्ठचित्ते एत्थ सत्थे पुणो पुणो। छाया-यो गुणः स मूलस्थानं, यन्मूलस्थानं तद्गुणः, इति स गुणार्थी महता परितापेन पुनः पुनः वसति प्रमत्तः, तद्यथा-माता ये पिता मे भगिनी मे भार्या मे पुत्रा में दुहिता मे स्नुषा मे सखिस्वजनसंग्रन्थसंस्तुता मे, विविक्तोपकरणपरिवर्तनभोजनाच्छादनं मे, इत्यर्थ गद्धो लोको वसति प्रमत्तः अहश्च रात्रिं च परितप्यमानः कालाकालसमुत्थायी संयोगार्थी अर्थालोभी आलुम्पः सहसाकारः विनिविष्टचित्तः अत्र शस्त्रे पुनः पुनः ॥१॥ शब्दार्थ-जो मुनि छहकाय के जीवों के स्वरूप को भली-भाँति जानकर कृत कारित अनुमोदित एवं मन, वचन, कायसे उनके आरंभ का त्याग कर देता है वह अपने कर्तव्यमार्ग का ज्ञाता कहा जाता है और वही गुणस्थान एवं सूलस्थान के ज्ञानपूर्वक कषायादिरूप लोक पर विजय प्राप्त करनेवाला होता है। अथवा-अपनी बुद्धि से या दूसरे किसी के कथन से अथवा तीर्थंकरों के उपदेश से या किसी आचार्य के समीप सुनकर यह जान लेता है कि जो गुण है वहीं झूलस्थान है। जो भूल है वही शुणस्थान है। इसलिये वह गुणार्थी अपरिमित दुःखसे શબ્દાર્થ–જે નિ છ કાયના જીના સ્વરૂપને ભલી ભાતી જાણીને કૃતકારિત અનુદિત અને મન, વચન કાયાથી તેના આરંભને ત્યાગ કરે છે તે પોતાના કર્તવ્ય માર્ગને જ્ઞાતા કહેવાય છે, અને તે ગુણસ્થાન તેમજ મૂળ સ્થાનના જ્ઞાનપૂર્વક કષાયાદિરૂપ લેકપર વિજય પ્રાપ્ત કરનાર થાય છે. અથવા – પિતાની બુદ્ધિથી અગર બીજા કેઈના કથનથી અથવા તીર્થંકરેના ઉપદેશથી અથવા આચાર્યને સમીપે સાંભળીને એ જાણી લે છે કે જે ગુણ છે તે મૂળસ્થાન છે, જે મૂળ છે તે ગુણસ્થાન છે. માટે તે ગુણાથ—અપરિમિત દુખથી રાગ
SR No.009302
Book TitleAcharanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages780
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size52 MB
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