________________
५९२
आचारागसूत्रे तथा उपरतदण्डेषु वा-एकेन्द्रियादीन् प्राणिनो दण्डयतीति दण्डो मनोवाकायरूपः, उपरतो दण्डो येषां ते उपरतदण्डाः-मुनयः, तेषु वा, तद्विपरीता अनुपरतदण्डाः-गृहस्थाः, तेषु वा । एतदुभयसाधारणोऽप्युपदेशस्तेषामित्यर्थः ।
तथा-सोपधिकेषु वा इति । उपधीयते गृह्यते इत्युपधिः द्रव्यतो हिरण्यसुवदिः, भावतो रागद्वेपादिः, सहोपधिना वर्तन्त इति सोपधिका-भरतादयस्तेषु वा। अनुपधिकेषु वान विद्यते उपधिर्येषां तेऽनुपधिकाः-काष्टहारादयस्तेषु वा । एतद्द्येऽपि तीर्थकरोपदेशः समान एव भवतीत्यर्थः। प्रकट करता है । इस विषयमें रोहतक चोरका दृष्टान्त शास्त्रों में प्रसिद्ध ही है। इसी प्रकार उपस्थितों और अनुपस्थितों में, उपरतदंडवालों में और अनुपरतदंडवालों में, सोपधिकों में और निरुपधिकों में, तथा संयोगरतों में
और असंयोगरतों में भी प्रभुका धार्मिक उपदेश एक ही सरीखा हुआ है। जो प्रभु का धार्मिक उपदेश सुननेकी अभिलाषाले समवसरण में आते हैं वे 'उपस्थित' कहलाते हैं, और इससे विपरीत 'अनुपस्थित'। एकेन्द्रियादिक स्थावर और द्वीन्द्रियादिक ब्रस जीवों की हिंसाके कारणभूत मानसिक, वाचिक एवं कायिक व्यापारों से जो निवृत्त हो चुके हैं वे 'उपरतदण्ड' कहे जाते हैं, जैसे मुनिराज । इससे उल्टे 'अनुपरतदण्ड' हैं जैसे गृहस्थ। जो ग्रहण की जावे उसे 'उपधि' कहते हैं। यह दो प्रकार की है-एक 'द्रव्य-उपधि' दूसरी 'भाव-उपधि'। 'द्रव्य-उपधि '-हिरण्यसुवर्णादि, और 'भाव-उपधि' रागद्वेषादि हैं। इस उपधिसे युक्त जो होते हैं वे 'सोपधिक ' जैसे भरतादिक, और इस उपधिसे रहित जो हैं આ વિષયમાં રેહતક ચોરની દષ્ટાન્ત શાસ્ત્રમાં પ્રસિદ્ધ છે. આ પ્રકારે ઉપસ્થિત અને અનુપસ્થિતિમાં, ઉપરતદડવાળામાં અને અનુપરતદંડવાળામાં, સોપથિકમાં અને નિરૂપધિમાં, તથા સ ગરતમાં અને અસગરતમાં પણ પ્રભુને ધાર્મિક ઉપદેશ એક જ સરખો છે. જે પ્રભુને ધાર્મિક ઉપદેશ સાભળવાની भावनाथी समवस२६४मा मावे छ तेसो ' उपस्थित' उपाय छे. मन तनाथी विपरीत 'अनुपस्थित.' सन्द्रिया िस्थाप२ मने मेन्द्रिया िस योनी डिसाना કારણભૂત માનસિક વાચિક અને કાયિક વ્યાપારેથી જે નિવૃત્ત થઈ ચુકેલાં તે 'उपरतदण्ड' डेवाय छे, म भुनिया. अनाथी Beti "अनुपरतदण्ड” छ, रेम
उत्या. रेडए४२वामां आवे तेने उपधि' हे छे. मा. प्रा२नी छे. એક દ્રવ્ય-ઉપાધિ અને બીજી ભાવ–ઉપધિ દ્રવ્ય-ઉપાધિ હિરણ્યસુવર્ણાદિ અને नाव-उपवि. रागपाहिजे. २उपविसहित ये होय छे ते 'सोपधिक' म