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________________ ३८४ ॥ अथ तृतीयाध्ययनम् । ॥ अथ प्रथमोदेशः ॥ विषय १ द्वितीयाध्ययन के साथ तृतीय अध्ययनका सम्बन्धप्रतिपादन, चारों उद्देशों के विषयों का संक्षिप्त वर्णन । ३६९-३७० २ प्रथम सूत्रका अवतरण और प्रथम सत्र । ३७१ ३ अमुनि सर्वदा सोते रहते हैं, और मुनि सर्वदा जागते रहते हैं। ३७१-३८० ४ द्वितीय सूत्रका अवतरण और द्वितीय मूत्र । ५ दुःखजनक प्राणातिपातादि कर्म अहितके लिये होते हैं; इसलिये __ प्राणातिपातादि कर्मों से विरत रहना चाहिये । ३८०-३८४ ६ तृतीय मूत्रका अवतरण और तृतीय सूत्र । ७ जो शब्दादि विषयों में रागद्वेषरहित है-ऐसा ही प्राणी आत्म वान् , ज्ञानवान् , व्रतवान , धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है । ऐसा ही प्राणी पजीवनिकायस्वरूप लोकके परिज्ञानसे युक्त होता है । वही मुनि कहलाता है । वही धर्मवित् और ऋजु है, एवं वही आवर्त और स्रोतके संबन्धको जानता है। ३८५-३८८ ८ चतुर्थ मूत्रका अवतरण और चतुर्थ मूत्र ।। ९ आवर्त और स्रोतके सम्बन्धके जाननेवाला मुनि बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थिसे रहित, अनुकूल और प्रतिकूल परीपहों को सहन करनेवाले, संयम विपयक अरति और शब्दादि विषयक रति की उपेक्षा करनेवाले होते हैं, और वे परिपहों की परुपता को पीडाकारक नहीं समझते हैं। वे सर्वदा श्रुतचारित्ररूप धर्म में जागरूक रहते हैं, दूसरों का अपकार नहीं करना चाहते हैं । वे वीर अर्थात् कर्मविदारण करने में समर्थ होते हैं। इस प्रकारके मुनि दुःश्व के कारणभूत काँसे मुक्त हो जाते हैं ।३८९-३९१ १० पाँचवें सूत्रका अवतरण और पाचवा मूत्र। ३९२ ११ जरा और मृत्युके वशमें पड़ा हुआ मनुष्य सर्वदा मृह बना रहता है, इसलिये वह श्रुतचारित्र धर्म को नहीं जानता है। ३९२ ३८९
SR No.009302
Book TitleAcharanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages780
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size52 MB
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