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________________ पर राध्य वाले द्वारा आदि को और पको उच्च विश्व हो वेषय, न्निध्य और प्रति का व हो उच्च को सिद्धपद और णमोक्कार-आराधना शुद्धोपयोग आत्मा की शुद्धावस्था है। वहाँ कर्मों का बंध नहीं होता । कर्मबंध तो शुभोपयोग | तक ही रहता है। शुद्धोपयोग के संबंध में जैन जगत् के महान् अध्यात्मयोगी आचार्य कुंदकुंद ने | प्रवचनसार में लिखा है। : #धर्म- परिणत स्वरूप युक्त आत्मा यदि शुद्धोपयोग सहित हो तो वह निर्वाण सुख या मोक्ष सुख प्राप्त करती है। यदि वह शुभोपयोग युक्त हो तो स्वर्ग के सुख को, जो बंधमूलक है, प्राप्त करती है। शुद्धोपयोग से निष्पन्न आत्माओं का, केवलियों और सिद्धों का सुख अत्यंत आत्मोत्पन्न, | परम आध्यात्मिक सुख है। वह विषयातीत है। अनुपम, अनंत और अविच्छिन्न है । | जैन आराधना में णमोक्कार मंत्र का महत्त्व जैन परंपरा या धर्म का अंतिम लक्ष्य आत्मस्वरूपोपलब्धि है । उसका मार्ग कृत्स्न- कर्म क्षय है ।' शुद्ध समग्र कर्मों का क्षय या नाश हो जाने से आत्मा की वैभाविक दशा अपगत हो जाती है। उसके | स्वरूप पर आच्छन्न कार्मिक आवरण ध्वस्त हो जाते हैं। उसी का परिणाम आत्मा के विशुद्ध स्वरूप की प्राप्ति है । यह प्राप्ति कहीं बाहर से नहीं होती। कोई ऐसा वैशिष्ट्य नहीं है, जो बाहर से आकर आत्मा में विलक्षणता उत्पन्न कर दे । आत्मा अपने आप में सर्वथा परिपूर्ण है । उसमें किसी प्रकार की न्यूनता नहीं है। इसके अपने स्वरूप के आवृत हो जाने पर न्यूनता दिखलायी पड़ती है । कार्मिक आवरणों को मिटाने के लिए जैन दर्शन में दो उपाय बतलाए गए हैं। उनमें एक ज्ञान है और दूसरा किया है। ज्ञान तब ज्ञान कहा जाता है, जब उसके साथ सम्यक् दर्शन, सम्यक् निष्ठा और सम्यक् आस्था का योग बनता है। क्रिया, तब सम्यक् क्रिया कही जाती है, जब उसका संचालन सम्यक् ज्ञान द्वारा होता है । सम्यक् क्रिया के दो रूप बनते हैं— अवरोधात्मक तथा तपोमय अध्यवसायात्मक । कार्मिक प्रवाह का अवरोध आवश्यक है । यदि कर्मों का प्रवाह सदा गतिशील रहे तो फिर उनका कभी अंत नहीं आता । ज्यों-ज्यों कर्म कटेंगे, अन्य संगृहीत होते जायेंगे, इसलिये पहला कार्य निरोधात्मक है। कुछ लोग यह शंका करते हैं कि अवरोध और निरोध को प्रवृत्ति उद्यम या अध्यवसाय कैसे कहा जाए ? यह तो निवृत्त होने की या रुकने की स्थिति है। यह शंका उचित है, किंतु यहाँ एक बात पर | विशेष रूप से चिंतन करना आवश्यक है कि अपनी किसी प्रवृत्ति को रोकने के लिये भीतर ही भीतर बड़ा प्रयत्न करना होता है । अत्यधिक अध्यवसाय करना होता है । यह कार्य सरल नहीं है । यह बहुत १. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्ययन - १०, सूत्र - ३. 66
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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