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________________ सिद्ध पद और णमोक्कार-आराधना का का कुछ लोग ऐसा कहते हैं-- शुद्ध भाव से खोटा-खरा कुछ भी बोला जाए, अच्छा ही है। उन्हें यह समझना चाहिए कि शब्द का अपना एक विज्ञान है। ज्यों ही वह उच्चरित होता है, वातावरण में अपने कलेवर या अवयव के अनुरूप तरंगें उत्पन्न करता है। वह आकाश में व्याप्त हो जाता है। न्यायशास्त्र में-'शब्दगुणमाकाशम्'- ऐसा कहा गया है। अर्थात् शब्द आकाश का गुण है। आकाश में शब्द के उच्चारण के साथ उत्थित तरंगें अपना विशेष प्रभाव रखती हैं। अशुद्ध उच्चारण से वैसी फल निष्पत्ति नहीं होती, जो शुद्ध उच्चारण द्वारा होती है क्योंकि शब्दों का, उनकी तरंगों का तथा उनके प्रभाव का परस्पर वैज्ञानिक (Scientific) संबंध है। इसके साथ-साथ मंत्र का उच्चारण यदि मन के भीतर ही किया जाए तो अति उत्तम होता है। सन वना र्वक ८. काय-शुद्धि ___ मंत्र-जप में बैठने से पूर्व शरीर शुद्धि आवश्यक है। शौच आदि दैहिक शंकाओं से निवृत्त हो जाना चाहिए। यत्नापूर्वक शरीर को शुद्ध कर लेना चाहिए। जप में बैठने के पश्चात् दैहिक हलन-चलन नहीं करनी चाहिए। हाथ, पैर, अंगुलि आदि किसी अंग-प्रत्यंग को नहीं हिलाना चाहिए। शरीर को स्थिर रखने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए। जप के क्रम, भेद यदि खड़े होकर जप करना हो तो तीन-तीन श्वासोच्छ्वास में एक बार णमोक्कार का जप होना चाहिये। एक सौ आठ बार जप में तीन सौ चौरासी श्वासोच्छ्वास लेने चाहिए। जप करने के तीन क्रम बतलाये गये हैं- १. कमल-जाप्य, २. हस्तांगुली-जाप्य, ३. माला-जाप्य । रना नहीं जब कमल-जाप्य Bate BF को साधक अपने हृदय में अष्ट पंखुडी युक्त एक श्वेत कमल का चिंतन करे। उसकी प्रत्येक पंखुडी पर पीले वर्ण के बारह-बारह बिंदुओं की कल्पना करे। कमल की मध्यवर्तिनी कर्णिका में भी बारह बिंदुओं की कल्पना करे। इस प्रकार एक सौ आठ बिंदु हो जाते हैं। उन बिदुओं में से प्रत्येक बिंदु पर एक-एक मंत्र का | जप करे। इस प्रकार एक सौ आठ बार मंत्र-जप हो जाता है। एक सौ आठ बार मंत्र-जप करने के पीछे एक चिंतन है। ऐसा माना जाता है कि व्यक्ति प्रतिदिन एक सौ आठ प्रकार के पाप करता है। पाप का उद्भव-आरंभ-समारंभ और संरंभ इन तीनों से होता है। इन तीनों के साथ मन, वचन और शरीर जुड़ता है। इस प्रकार ३ x ३ का गुणन करने से ९ गुणनफल आता है। कृत, कारित और अनुमोदित- इन तीन का नव से गुणन करने से सत्ताईस गुणनफल होता है। क्रोध, मान, माया तथा लोभ- इन चार कषायों का सत्ताईस से गुणन करने से जोर 58
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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